शोधालेख
स्त्री आत्मकथाओं में पुरुष पात्रों का विश्लेषण
-अनिमा बिश्वास
शोधार्थी
हिंदी विभाग, असम विश्वविद्यालय,सिलचर
सारांश:
शोध सार
सभ्य समाज के निर्माण के साथ शुरुआत से लेकर आज तक समाज के कर्ताधर्ता पुरुष ही रहे हैं l सभी सामाजिक प्रक्रिया चाहे वे धार्मिक रीति-रिवाज हो या सामाजिक प्रतिष्ठा के कार्य, सभी प्रक्रियाएं पुरुष के ही इर्द गिर्द संचालित होती है i ऐसे में जब समाज व साहित्य का कोई हिस्सा पुरुष के वर्चस्व से अछूता नहीं रहा, तो स्त्री आत्मकथाओं में स्थान पाने से कैसे रह सकता था ? जन्म से मृत्यु तक पुरुष की ही अधीनता में स्त्री अपनी जीवन को सँवारती रही है l विभिन्न स्त्री आत्मकथाएँ पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री चाहे पढ़ी-लिखी हो या अनपढ़ उसे पुरुष की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है l अधिकांश स्त्री रचनाकारों को आत्मकथा लेखन का कारण पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रस्त समाज की प्रताड़ना एवं उपेक्षित व्यवहार से मिला है l ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी l पद्मा सचदेव, मन्नू भंडारी, शिला झुनझुनवाला, कृष्णा अग्निहोत्री, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, कुसुम अंचल, कौशल्या बैसंत्री व रमणिका गुप्ता सहित अनेक स्त्री लेखिकाओं द्वारा आत्मकथा लिखने के पीछे पितृसत्तात्मक समाज के दमघोटू परिवेश में साँस ले रही अंतर्मन की छटपटाहट है l हाँ, एकाध आत्मकथाएँ ऐसी भी मिलेगी जिसे किसी लेखिका ने अपने प्रसिद्धि के लिए या मन बहलाने के लिए लिखी हो परंतु उसमें भी किसी न किसी रूप में पुरुष तथा पुरुषसत्ता का सन्दर्भ दृष्टिगत हो जाता है l
बीज शब्द:
स्त्री विमर्श, अस्मिता, स्त्री आत्मकथा, पितृसत्ता, संस्कार, समाज
मूल विषय:
अतीत में प्रत्येक इतिहास का निर्माता पुरुष ही रहा है l वर्तमान समय में जब स्त्री जागतिक मामलों में रूचि लेना शुरू कर रही है तब भी वह वही जगत है जो पुरुष का है l धर्म, समाज और साहित्य में स्त्री को विभिन्न रूपों में परिभाषित की गई है l कभी वह पुरुषों की अनुगामिनी बताई गई, तो कभी अबला और त्याग की मूर्ति बताई गई, तो कभी आवेगमयी और चंचला जो तर्क के बंधन को नहीं मानती l पुरुष की दृष्टि में स्त्री मांगलिक और अशुभ दोनों हुई l इसके विपरीत पुरुष को सदा शौर्य एवं वीर्य का प्रतीक और तर्क और न्याय के साथ साथ मर्यादा का पुजारी माना गया l सिमोन के शब्दों में “पुरुष की यह स्वभावगत विशेषता है कि वह हमेशा अनन्य के सन्दर्भ में स्वयं के बारे में सोचता है l जगत के बारे में उसका सोच द्वंद्वात्मकता का होता है l वह हमेशा द्वैत में सोचता है, अतः उसने स्वयं के सन्दर्भ में औरत को अन्य की कोटि में रखा l उसके चिंतन में यह द्वैत भाव पहले इतना स्पष्ट नहीं था l पहले तो वह एक ही तत्व में स्त्री और पुरुष, दोनों का अवतरण मान लेता था, किन्तु जैसे जैसे औरत की भुमिका विस्तृत होती गयी, वह पुरुष के लिए सम्पूर्ण रूप से अन्या होती चली गई l उसके नाना रूप उभरे l कभी पुरुष ने उसे देवी माना, तो कभी दानवी l”1 इसप्रकार पुरुष ने औरत के लिए एक दुनिया बनाने का अधिकार अपने पास रखा l
स्त्री और पुरुष के बीच सम्बन्ध का कटु यथार्थ है कि स्त्री पुरुष को जन्म देती है परन्तु पुरुष उसका शासन तथा अमर्यादित शोषण करता है और ऐसा करने के लिए वह सामाजिक, नैतिक और धार्मिक रूप से अधिकृत है l परन्तु भारतीय स्त्रियों की आतंरिक और बाहरी दुनिया में पिछले पचास वर्षों में जबरदस्त बदलाव आये हैं l आज स्त्रियाँ अपने स्वतंत्र अस्तित्व के प्रति सिर्फ सजग ही नहीं हुई बल्कि अपनी अंतर्ध्वनि को सप्रमाण लिख भी रही हैं कि उनकी राय में पुरुष क्या देख रहा है ? वह यह भी देख और लिख रही है कि पुरुषों में वे क्या क्या देख रही हैं ? आज स्त्री लेखन पिटी पिटाई समीक्षा का निरीह अनुगामी न रहकर नई परती जमीन तोड़ने जैसा आक्रामक और सतर्क है l इन लेखिकाओं में प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा, अनामिका आदि का उल्लेख सहज ही किया जा सकता हैl
पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था द्वारा स्त्री पर होते आये शोषण, अत्याचार तथा दमन के विरोध में स्त्री चेतना ने ही स्त्री विमर्श को जन्म दिया है l स्त्री, पुरुष की अहंवादिता की शिकार है, परन्तु उस अहंवादिता का मुकाबला आज वह हिम्मत के साथ कर रही है l वह अपना पूरा जीवन ‘अन्य’ होकर नहीं जीना चाहती इसके लिए उसका सारा प्रयास पितृसत्तात्मक मानसिकता के अस्वीकार व स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में स्वीकृति का है l आज स्त्री उन मिथकों को तोड़ रही है जो उसके विरुद्ध रचे गए हैं l पितृसत्तामक समाज स्त्री के अधिकारों पर विविध वर्जनाओं व निषेधों का पहरा बैठाता रहा है ताकि वह पुरुषों की गुलाम बनी रहे l जहाँ परंपरा नारी को पितृसत्ता के प्रभुता में रहने को बाध्य करती है, वहाँ आधुनिक स्त्री की चेतना उसे पितृसत्ता के सभी बंधनों को तोड़ डालने के लिये प्रेरित करती है l आज स्त्री अपनी मुक्ति के लिए, अपनी अस्मिता के लिए तथा स्वयं को मनुष्य के रूप में मान्यता दिए जाने के लिए व्यापक स्तर पर संघर्ष कर रही है l स्त्री के इस संघर्ष का उद्देश्य पुरुष को दरकिनार कर अपना वर्चस्व स्थापित करना नहीं है, अपितु उन परम्पराओं और रूढ़ियों से मुक्ति है जो केवल स्त्री के लिए निर्धारित है l इसी सन्दर्भ में मृणाल पाण्डे की स्त्री मुक्ति के विचार पर किया गया यह टिप्पणी उल्लेखनीय है –“नारीवाद पुरुषों का नहीं उनकी मानवीयता घटाने वाले उस छद्म मुखौटें का प्रतिकार करता रहा है जो मर्दानगी के नाम पर गढ़ा गया है और जिसके पीछे झूठी अहम्मन्यता और उत्पीड़क प्रवृत्ति के अलावा कुछ नहीं है l”2 स्पष्ट है कि स्त्री पुरुष से संघर्षशील हो उससे मुक्ति की कामना नहीं करती अपितु उस मुक्ति के रूप में वास्तविक कामना पुरुष प्रधान समाज की संकीर्ण विचारधारा से है l
स्त्री के दृष्टिकोण, स्वर, निर्णय और उसके यथार्थ वास्तविक अध्ययन में स्त्री आत्मकथा सबसे ज्यादा मददगार साबित होती है जो सिर्फ उसका नहीं बल्कि व्यापक समाज का हिस्सा बन जाता है l इस प्रकार स्त्री-आत्मकथा स्त्री के बड़े समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है l आत्मकथा में वर्णित कथा कई स्त्रियों की अपनी अंतर्व्यथा होती है l साथ ही कैसे एक स्त्री का व्यक्तित्व आकार लेता है, किन परिस्थितियों के बीच से वे गुजरी, कहाँ से होता हुआ उनका जीवन कहाँ तक पहुँचा और इस प्रक्रिया में उनकी संवेदनाएं किस प्रकार परिवर्धित हुई, उसका जीवंत चित्र आत्मकथा का प्राण है l स्त्री लेखन में विभिन्न पुरुषों की छवि को देखने से कुछ बुनियादी सवाल पैदा होते हैं l आत्मकथा में व्यक्त लेखिका के सबसे निकटतम पुरुष जैसे पिता, पति, प्रेमी या पुत्र का रेखांकन नायक बनाम खलनायक किस रूप में दर्ज हुआ है ? नई सदी में नई मानसिकता से उत्प्रेरित हमारे इस समाज में नए आचार विचार व्यवहार को जीती स्त्रियां क्या मौजूदा परिवार व्यवस्था की पुरानी निरकुंश पितृसत्ता द्वारा कसी बेड़ियां तोड़कर अपने निजी विवेक से स्वतंत्र फैसला लेकर समानाधिकार, आत्म सम्मान व निजी जगह पाने जैसे बुनियादी हक लेने की सामर्थ्य बटोर पायी हैं या वे अभी भी बेचेहरा बनकर एकाधिकार वाली पितृसत्ता द्वारा उन पर जबरन लाद दिए गये संबंधों को ढोती हुई (पुत्री, मां, पत्नी या प्रेमिका बनकर) पुरुष की निजी सम्पत्ति समझी जाती रहेंगी ? इन सवालों का जवाब स्वरुप स्त्रीवादी लेखिका अनामिका लिखती हैं- ‘दोषी पुरुष नहीं, वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक पुरुषों को लगातार एक ही पाठ पढ़ाती है कि स्त्रियां उनसे हीनतर है उनके भोग का साधन मात्र l’3 आज का स्त्री लेखन महज नारी मुक्ति की सीमाओं में बंधा नहीं रह गया है बल्कि स्त्री के विशद रचना संसार में निरूपित पुरुष छवि बेहद विश्वसनीय पुख्ता जमीन पर चलकर हमारे सामने उपस्थित है l इसी सन्दर्भ में समकालीन आत्मकथाओं में स्त्री की दृष्टि में पुरुष पात्रों पर विचार करना महत्वपूर्ण है l
भारतीय सामाजिक संरचना के अनुसार संतान पर भी सबसे पहला अधिकार पिता का ही होता है l कोई भी स्त्री अपने जीवन में सबसे पहले जिस पुरुष का साक्षात्कार पाती है वह उनके पिता ही होते है l ‘पिता’ शब्द एक स्त्री के लिए जन्मदाता, अभिभावक तथा संरक्षक के समानार्थी है l परन्तु अपनी पुत्री के प्रति एक पिता की भूमिका क्या होनी चाहिए यह हमारा समाज निर्णय लेता है l जिस प्रकार समाज एक स्त्री का निर्माता बनता है उसी प्रकार पुंसवादी समाज एक पिता को केवल ममतामयी पिता बने रहने की इजाजत नहीं देता l इसके अपेक्षा उसे कठोर बने रहने, भावनाओं को काबू में करने, परिवार को, समाज को अपने नियंत्रण में रखने वाले ‘पुरुष’ बनने के लिए प्रशिक्षित करता है l पुंसवादी समाज द्वारा निर्मित पुरुष, पिता बनकर भी अपनी संतान के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति खुलकर नहीं कर पाता l
लेखिका कृष्णा अग्निहोत्री ने अपनी आत्मकथा ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ में अपने आदर्शवादी पिता का वर्णन किया है जिन्होंने बचपन से ही अपनी बेटी को सशक्त होने की प्रेरणा दी, उन्हें उच्च शिक्षा से शिक्षित किया, परन्तु मात्र सोलह साल की उम्र में पिता ने अपनी प्रतिष्ठानुकुल सुन्दर, सुशील अफसर दामाद पाकर बेटी का विवाह करा दिया l पर अफसर पति ने अपनी सुन्दर पत्नी को एक देह से बढ़कर और कुछ नहीं माना l आये दिन शारीरिक मानसिक अत्याचार होने लगा l पति के अत्याचार से पीड़ित लेखिका ने जब पति से अलग होने का निर्णय लिया उसी क्षण उनके पिता ने भी बेटी से मुँह मोड़ लिया l
कहते है एक बार बेटी ब्याह करके मायके की चौखट जब लाँघती है तो वह पराई हो जाती है, ससुराल ही उसका घर होता है और वही से उसकी अरथी निकलती है l मायके में लौटने के बाद लेखिका और उनकी बहन जब पिता के मूंह से यह सुनती है कि ‘सोचा था तुम दोनों का ब्याह हो गया है, चलो कुछ तो मुक्ति मिली परन्तु तुम दोनों तो फिर से छाती पर मूंग दलने आ गई हो l’4 पिता के इस कथन से लेखिका चौंक जाती है l जिस बेटी को देखते ही पिता का चेहरा मुस्कुराहट से भर जाता था, उसके लिए ये कड़वाहट भरे शब्द पिता सिर्फ इसलिए कह रहे थे क्योंकि पति के अत्याचार से त्रस्त होकर बेटी ने परंपरा का निर्वाह करने से इंकार कर दिया था l और इस प्रकार उनका अंतिम आधार भी खो जाता है l
इसी क्रम में चंद्रकांता द्वारा रचित आत्मकथात्मक संस्मरण ‘हाशिए की इबारतें' में लेखिका ने बेटी, माँ, बहन, पत्नी, दादी, नानी का रोल निभाती स्त्री की सोच और दृष्टिकोण को जानने की कोशिश की है l और साथ-साथ कई दशकों को पीछे छोड़कर प्रगति के तमाम सोपान पार करने के बाद पुरुष वर्चस्व के अहम पूरित सोच में कितना कुछ सार्थक बदलाव आ पाया है इस पर भी विचार किया है i लेखिका के जीवन से सम्बंधित प्रथम पुरुष उनके ताता (पिता) समाज के एक आदर्शवान पुरुष रहे हैं i बचपन से ही लेखिका ने देखा है कि किस प्रकार उनके ताता अपने हर दायित्व को पूरी गहनता से निभाते रहे, वह चाहे एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में हो, चाहे भाई-बन्धु के रूप में हो l बच्चों को भी कभी किसी चीज का कोई अभाव न होने दिया l माँ के गुजर जाने के बाद लेखिका और उनके भाई बहनों के लिये ताता माँ और पिता दोनों बन गये l लेखिका के पिता एक समाज सुधारक थे उन्होंने अपने बेटियों के लिए स्त्री शिक्षा के बन्द द्वार खोल दिए i परवरिश तथा लाड़-प्यार में भी लड़के और लड़कियों में कभी भेदभाव नहीं किया परन्तु तमाम लाड़ प्यार के बावजूद बच्चों को अनुशासन और संस्कारों के बेड़ियों में रखा l एक समय आया जब अपने जिम्मेदारी से मुक्त होने के चिंता में, बेटियां अपने विवेक से सही- गलत का भेद भाव कर सके उस उम्र तक पहुँचने से पहले ही उनके पैरों में शादी की बेड़ियाँ डाल दीi जो उनके पिता के नजर में बेटियों के भविष्य को सुरक्षित करना थाi परन्तु क्या शादी से बेटियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो जाती है ! यह विचारणीय है i इसी परिप्रेक्ष में लेखिका अपनी बहन शीला के पति टी. एन. का भी जिक्र करती है जिसने पति होने के अहंकारी पुलिसिया धौंस के चलते अपनी पत्नी को जिन्दा जला दिया i परन्तु पुरुष वर्चस्ववादी समाज ने इसे बस एक दुर्घटना ही माना यहां तक खुद लेखिका के आदर्शवादी पिता ने भी अपनी बेटी को न्याय दिलाने के लिये कोई कदम नहीं उठाया l इस पर लेखिका ने लिखा है – “लाड़ तो तुमने खूब किया पर एक लड़की के साथ हुए अन्याय को चुपचाप सह गये, आवाज भी न उठाई l क्या बेटियों की मौत इतनी सस्ती होती है कि उसके कारणों की खोज भी जरुरी नहीं ?”5 शीला के जगह अगर घर के किसी बेटे के साथ ऐसी कोई अनहोनी होती तब भी क्या पिता का यही रवैया रहता !
सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए पति-पत्नी में प्रेम, आत्मसमर्पण, सहानुभूति, सेवा, त्याग व सहिष्णुता की आवश्यकता मानी जाती है परन्तु पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में पुरुष का अहं, प्रतिष्ठा के झूठे मानदंड तथा नारी की बेबसी, विवशता का लाभ उठाकर पत्नी को गृह बंदिनी, पति की आश्रिता बनाया जाता रहा है l भारतीय दाम्पत्य जीवन में पति की स्थिति पत्नी से श्रेष्ठ मानी जाती रही है l पत्नी पति के अधीन और पति के इशारें पर जीने के लिए विवश है l और इस प्रकार पारिवारिक जीवन में पति शासक बनकर पत्नी की इच्छाओं तथा विचारों को कुचलकर रखता है l
‘शिकंजे का दर्द’ आत्मकथा में लेखिका सुशीला टाकभौरे ने उनके और उनके पति के बीच के तनाव पूर्ण सम्बन्ध का चित्रण किया है l पति परमेश्वर की धारणा समाज में होने के कारण लेखिका चुपचाप सब कुछ सह तो लेती है पर उनके पति ने कभी उनसे दो अच्छे शब्द नहीं बोले l वह लेखिका से गाली-गलौज तथा मार-पीट तक करते थे l कई बार लेखिका के मन में आया कि अन्याय के सामने सर झुकाना गलत बात है l आर्थिक स्तर पर आत्मनिर्भर होने के बाद भी पति के जुल्मों के शिकार होती रही, छोटी छोटी बातों के लिए पति द्वारा अपमानित होती रही l इस प्रकार के कई उत्पीड़न सहे पर वे रिश्तों को तोड़ न सकी और न ही इस शिकंजे से वह बाहर निकल पाई l लेखिका के पतिदेव ने हमेशा उन्हें एक बर्तन मांझने वाली नौकरानी के बराबर ही समझा और लेखिका की शिक्षा, डिग्री, नौकरी और वेतन को कभी अहमियत नहीं दी l जब जब लेखिका के मन में आक्रोश के क्षण आये वे निरंतर शब्दों में पिरोती गई l
इस प्रकार लेखिका ने अपने पति के प्रति अनेक अभियोगों को यद्यपि बयां किया है तथापि उनके मन में उनके प्रति कृतज्ञता भाव भी है i उन्होंने लिखा है- “टाकभौरे जी से मिले सहयोग को नकारा नहीं जा सकता i मेरी उपलब्धियों में उनका योगदान है, चाहे जिस रूप में मिला, मगर मिला i विरोध भाव रहने पर भी वे मुझे अपने अध्ययन, अनुभव के आधार पर पढ़ाई, लेखन, प्रकाशन सम्बन्धी अनेक जानकारी देते थे, जिसका लाभ मिलता रहा i उनके साथ मैं अनेक लोगों से मिलती रही, जो काम मैं अकेले नहीं कर सकती थी वह काम मैं उनके साथ रहकर करती रहीi"6 एक शिक्षिका होने के नाते जब लेखिका अपने जाति समुदाय के उत्थान के कार्य में आगे आई तब टाकभौरे जी ने हमेशा उन्हें प्रोत्साहित किया l
लेखिका अपने पति द्वारा अपने साथ किये गये उत्पीड़न का निष्कर्ष यह पाती है कि असल में यह उत्पीड़न, शोषण व्यक्तिगत नहीं होते बल्कि इसका मूल समाज में व्याप्त पुरुष मानसिकता है l उन्होंने लिखा है –“मैं इसका मूल टाकभौरे जी को नहीं, बल्कि इस समाज व्यवस्था को देती हूँ जहाँ स्त्रियों को हमेशा नगण्य माना जाता है l पुरुष अपनी पत्नी को पीट सकता है,वह इसे अपने पति होने के तानाशाही अधिकार के रूप में मानता हैं l इसमें परिवार, समाज के दुष्ट लोगों का मौन समर्थन भी रहता है l”7
पुरूषों की मनुवादी मानसिकता को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर लेखिका सुशीला टाकभौरे ने स्त्री को इसके चंगुल से निकलने के लिए संकेत किया है l ‘अन्या से अनन्या’ आत्मकथा की लेखिका प्रभा खेतान ने दाम्पत्य जीवन की ओर नवीन दृष्टि से देखा है जिसके कारण वे सामाजिक फटकार,एवं घृणा को जीवनभर सहने के लिए विवश होती है l कलकत्ता के व्यापारिक दृष्टि से संपन्न समझे जाने वाले खेतान परिवार में जन्म लेनेवाली प्रभा अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल करती है और अपने से आयु में दुगने, विवाहित और पांच संतानों के पिता, नेत्र विशेषग्य डॉ. सर्राफ के प्रेम में पड़कर आजीवन एक अवैध रिश्ते में बंधकर रह जाती है l डॉक्टर आजीवन अपनी पत्नी को छोड़ नहीं पाए और लेखिका उनकी ब्याहता नहीं बन पायी l पच्चीस वर्षों तक डॉ. सर्राफ के साथ विवाह के बिना ही लेखिका ने दांपत्य जीवन की सारी संभावनाओं का निर्वाह किया l डॉ. सर्राफ को पति मानकर पूरा जीवन तन मन एवं धन सर्राफ के पारिवारिक जीवन हेतु समर्पित किया परन्तु अंत तक डॉ. सर्राफ के जीवन में वे ‘अन्य’ ही बनी रही और समाज में उन्हें सिर्फ अपमान, घृणा और बदनामी ही मिली l
एक संपन्न घर की नवयुवती एक चालीस साल के खेले खाए व्यक्ति से कैसे प्रेम कर बैठी इस प्रश्न का उत्तर लेखिका ने आत्मकथा में दिया है कि उनका उपेक्षित बचपन, उनका घोर एकाकी जीवन इस सबके मूल में है l बचपन में माँ और भाई-बहन द्वारा की गयी उपेक्षा और पक्षपात ने लेखिका को बहुत ही घायल किया l पूरे परिवार में बस एक उनके पिता ही थे जो प्रभा से प्यार करते थे पर मात्र नौ साल के उम्र में ही वह पितृहारा हो गयी l पिता के अभाव की क्षतिपूर्ति डॉ. सर्राफ के रूप में हुई l प्रेम के अभाव में जिसका बचपन बीता हो, वह स्त्री डॉ. सर्राफ के छलावे में आ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं l लेखिका ने लिखा है –“डॉक्टर साहब मेरे लिए बरगद की छाँव थे l मेरी जिंदगी का पड़ाव, मेरा सबकुछ, रुपये –पैसे की मुझे चिंता नहीं, मैं आत्मनिर्भर थी l मुझे पैसा कमाना आता है l”8 परन्तु जिस निःस्वार्थ भाव से लेखिका ने डॉ. सर्राफ से प्रेम किया क्या उन्हें भी निःस्वार्थ प्रेम मिला ! यह संदेहास्पद है l उनका लेखिका से यह कहना है कि “क्या विवाहित पुरुष दूसरी औरत से खेलता नहीं ? मैंने कुछ अनोखा किया ? मैं फिर कहता हूँ मेरी तुम्हारे प्रति कोई जवाबदेही नहीं हम दोनों के बीच जो घटा वह क्षणों की कमजोरी थी, जब कोई लड़की गले पड़ जाए तो क्या करें बेचारा पुरुष ?”9 इस उक्ति से यह स्पष्ट होता है कि उनके दृष्टि में लेखिका के अनुभूतियों का कोई महत्व नहीं l उनके लिए औरत बस एक देह है, मन लगाने की चीज और कुछ नहीं l पर लेखिका ने अपने आवेगों की तुष्टि के लिए डॉ. साहब से फिर भी सम्बन्ध बनाए रखा l उन्होंने लेखिका की जिम्मेदारी कभी नहीं ली परन्तु जब लेखिका अपने व्यवसाय के माध्यम से खुद आत्मनिर्भर बन गयी तब अपने पौरुषीय अहंवादी सोच के चलते लेखिका के हर कदम पर डॉ साहब ने अपना नियंत्रण जमा लिया l
डॉ. सर्राफ के लिए लेखिका का प्यार उनके जिंदगी का बहुत बड़ा हिस्सा होकर भी समाजिक धरातल पर अपर्याप्त ही था और यही कारण है कि तमाम प्रयत्नों के बाद भी वे ‘दूसरी औरत’ के आरोपित खाँचे से कभी निकल नहीं पाई l प्रभा खेतान अपने आत्मकथा में एक प्रसंगवश अपने कॉलेज के दिनों में अपने अध्यापक डॉ. चेटर्जी द्वारा कहे गये कथन स्मरण करती है- “.... स्त्री होना कोई अपराध नहीं है पर नारीत्व की आंसू भरी नियति स्वीकारना बहुत बड़ा अपराध हैi अपनी नियति को बदल सको तो वह एकलव्य की गुरु दक्षिणा होगी l”10 इस वाक्य में कहे गये सन्देश को लेखिका अपने जीवन में पूर्ण रूप से धारण तो नहीं कर पाई पर एक पुरुष द्वारा कहे गये इस वाक्य ने उनके मन में अमिट छाप छोड़ा जिसके सन्दर्भ में लेखिका ने लिखा है – “मैं अवाक उन्हें देखती रह गई थी l वह गौरवपूर्ण उन्नत ललाट, काले घुंघराले बाल, वह स्वच्छ पारदर्शी दृष्टि....पुरुष का ऐसा भी रूप होता है !”11 अपने गुरु द्वारा दी गयी नसीहत उनके आतंरिक मन में गहरे स्तर तक घर कर गई जिसका फल यह रहा कि प्रभा एक सशक्त व सबल महिला के रूप में अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल हो पाई l
कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा ‘लगता नहीं है दिल मेरा’ तथा ‘और..और..औरत’ में उनके कई प्रेम प्रसंग सामने आते हैं i अल्पायु में विवाहित जीवन में मिली असफलताओं के बाद उनके जीवन में कई पुरुष आए, कुछ ने हमदर्दी जताई, कुछ ने साथ निभाने के वादे भी किए, और कुछ ने प्रेम के डोरे में बाँधकर बदनाम करने का प्रयास भी किया l इसकी मुख्य वजह लेखिका का संवेदनशील स्वभाव ही जान पड़ता है l जब कोई स्त्री बार-बार अपने जीवन में ठोकरे खाती है तो वह कुछ हद तक अपना जीवन साथी बार बार ढूढने का प्रयास करती है जिसके साथ वे आजीवन रह सके परन्तु एक समय ऐसा आता है कि दुर्व्यवहार सहते सहते स्त्री थक जाती है तो फिर उसे पुरुषों के प्रति कोई हमदर्दी नहीं रहती और वे मुहतोड़ जवाब भी देती है l लेखिका ने अपनी आत्मकथा में कई पुरुष मित्रों का जिक्र किया है जिन्होंने अपने मन की बात सिद्ध न होने पर लेखिका के उम्र दराज होने पर उपहास किया और उनका अकारण अपमान कर उनके औरत मन को आहत किया l
उन्होंने लिखा है “आज भी ऊँची उड़ान के बावजूद स्त्री अस्मिता को समाज ने अपनी मुट्ठी में कैद रखा है l अपने को बहुत सुलझे, समझदार एवं आधुनिक कहने वाले पुरुषों ने भी बिना चढ़ावे के किसी स्त्री की मदद शायद ही की हो l”12 इसी सन्दर्भ में रमणिका गुप्ता द्वारा पुरुष प्रवृत्ति के बारे में लिखा गया यह कथन द्रष्टव्य है, कि “पुरुष औरत को उसी हालत में बर्दाश्त करता है,जब उसे यह यकीन हो जाए कि वह पूरी तरह उसी पर आश्रित है और खुद कोई निर्णय नहीं ले सकती या वह स्वयं उस औरत से डरने लगे तो वह उसे सहता है l”13 लेखिका निर्मला जैन की आत्मकथा ‘जमाने में हम’ में हम देखते है कि किस प्रकार उनके सौतेले भाई अपने पिताजी से बदला लेने के भाव से लेखिका की माँ के विरुद्ध पंचायत बिठाकर उनका अपमान करने से नहीं कतराते l लेखिका की माँ जो वर्षों से पूरी शिद्दत से अपने पति और उनकी पूर्वपत्नी के बच्चों की जिम्मेदारी के साथ-साथ पूरी गृहस्थी का बोझ उठाती आई, वर्षों बाद समाज और उनके बेटे की दृष्टि में उनकी शादी की वैधता की चिंता व्यापी थी l उनपर यह इल्जाम लगाया गया कि उन्होंने एक पत्नी की मौजूदगी में उनके पिताजी से शादी की l जबकि उनके पिताजी की यह ‘तीसरी’ शादी थी l समाज और कानून पुरुष को बहुपत्नी का इजाजत देता था, इसलिए सारे इल्जाम माँ पर लगाकर उन पर मुकदमा चलाकर उन्हें अवैध ठहरा दिया lवही दूसरी तरफ पिता के असामयिक मृत्यु के बाद सहोदर बड़ा बेटा जिसकी परवरिश पर लेखिका की माँ ने अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर अपने संतानों के बीच लगभग राजकुँवर का दर्जा दे रखा था, वह अपने तमाम नकारेपन के चलते निरकुंश हो चला था, परन्तु माँ पुत्र मोह के चलते उसके नाज-नखरे उठाती, उसकी बदमिजाजी सहन करती रही l जिसका परिणाम यह मिला कि बेटा अपने जीवन की असफलताओं की जिम्मेदारी अपने स्वभाव और स्वार्थपरता के बजाय परिवार में होने वाली मुक़दमेबाजी पर डाल कर माँ को आजीवन उलाहना देता रहा l यहाँ तक कि अपने जीवन में कुछ न कर पाने की कुंठा और ईर्ष्या के चलते माँ के बुढ़ापे का एकमात्र ठिकाना उनकी हवेली पर भी कब्ज़ा कर लिया और माँ के सामने विधवाश्रम चले जाने का प्रस्ताव रखा l अंत में यद्यपि कानून का फैसला माँ के पक्ष में आया परन्तु क्या अपने सपूत द्वारा किये गये ज्यादतियों का घाव उनके ह्रदय से मिट पाया !
‘एक कहानी यह भी’ की लेखिका मन्नू भंडारी का समूचा जीवन संघर्ष से युक्त रहा है l जिससे विवाह के लिए उन्होंने इतना संघर्ष किया उसी व्यक्ति ने विवाहेतर जीवन का एक एक पल मन्नू को संघर्ष के लिये रचा l मन्नू का मानसिक, आर्थिक, सामाजिक स्तर पर शोषण कर मन्नू को संघर्ष करने के लिए प्रवृत्त करने वाले राजेंद्र जैसे प्रबुद्ध संवेदनशील लेखक पर नीरू की यह टिपण्णी सार्थक है, “नारी हित की दुहाई देकर हजारों पृष्ठ काले करनेवाले पुरुष लेखक से वह पुरुष कही श्रेष्ठ है जो बोलता लिखता चाहे कुछ नहीं है मगर स्त्री के मानवीय अधिकारों का सम्मान करता हुआ, जो उसे बराबरी का दर्जा देता है l”14 पितृसत्ता और सामंती वृत्ति के ठेकेदार जबतक अपने अहं की तुष्टि के लिए नारी का अपमान करेंगे नारी का संघर्ष का सिलसिला कभी ख़त्म नहीं होगा l पितृसत्ता केवल भारतीय परिवेश में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के अधिकांश समाज में देखने को मिलती है l और इस प्रकार समाज की सभी गतिविधियों पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से पुरुष का हस्तक्षेप रहता है l मानव समाज की विडम्बना रही है कि स्त्री को वही अधिकार मिले हुए हैं जिनसे पुरुषों के अधिकारों का अतिक्रमण न हो l पुरुष मानसिकता स्त्री को सबल देखने के पक्ष में नहीं रही है l पुरुष भले ही कितना कहीं अच्छा हो, कितने ही वादे करें मगर देर सबेर पितृ व्यवस्था उस पर हावी हो ही जाती है l पुरुष स्त्री को सामाजिक व्यवस्था के नजरों से तौलने लगता है l क्यों स्त्री को सामाजिक व पारिवारिक जीवन में बार बार अपने को साबित करना पड़ता है ? अग्नि परीक्षा सीता को ही क्यों देनी पड़ती है ? राम को क्यों नहीं ?
समाज के रिश्तों को देखें तो पाएंगे कि पिता का स्नेह पुत्री के प्रति माँ के अपेक्षा अधिक देखने को मिलता है l पर वही पुरुष अपनी पत्नी के प्रति निरकुंश बना रहता है l भारत की पहली आई.पी.एस. किरण बेदी अपनी आत्मकथा में लिखती है, “कितनी अजीब बात है कि आज का पुरुष अपनी बेटी को मुझ जैसी बनाना चाहता है, लेकिन अपनी पत्नी को नहीं i पिता के रूप में पुरुष सुरक्षित महसूस करता है, लेकिन पति के रूप में असुरक्षित क्यों ? मैं समानता और न्याय में विश्वास रखती हूँ l”15 पुरुष जितना सम्मान अपनी बेटी को देता है उतना दूसरे की बेटी को कहाँ देना चाहता है ? यह पारम्परिक सोच स्त्री के साथ भेदभाव की जड़ हैi भारतीय पुरुष चाहे कितना ही सुरक्षित क्यों न हो, अपने पुराने संस्कारों से दूर नहीं हो सकता हैi पत्नी को वह संपत्ति समझता हैi जब कभी स्त्री पुरुष की आशा के विपरीत विचार प्रकट करती है, तब पुरुष का अहम आहत हुए बिना नहीं रहता l
निष्कर्ष:
स्त्री आत्मकथाओं को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि स्त्री चाहे उच्च वर्ग की हो या निम्न वर्ग की या मध्यम वर्ग की हो, शायद ही कोई ऐसी स्त्री है जो बचपन, युवावस्था व प्रौढ़ावस्था में बिना किसी प्रकार की पुरुष प्रताड़ना के सहज जीवन जी हो i आज इक्कीसवीं सदी में भी स्त्री-पुरुष सामाजिक स्तर पर एक दुसरे के पूरक नहीं बन पाएँ हैं l पुरुष चाहे जितने वायदे करें मगर देर सबेर पितृसत्तात्मक सोच उस पर हावी हो ही जाती है और वह स्त्री को व्यवस्था की नजरों से ही तौलता है l सामाजिक व्यवस्था की सामूहिक आवाज कमोवेश वहीँ ठहरी हुई है, जहाँ हजार साल पहले थी l अपने देश में पर्याप्त कानून बनते रहे हैं, पर आज उसे व्यावहारिक रूप से लागू करने की आवश्यकता हैi वैसे स्त्रियाँ भी पुरुष से अलग होने हेतु बगावत नहीं कर रही हैi वे तो अपने को वस्तु-स्थिति से उबारने हेतु प्रयासरत हैi अपने लिए सम्मान चाहती हैi पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर समाजोत्थान में योगदान देना चाहती हैi सामाजिक जागरुकता बढ़ाने के लिए जन-जागृति और जन-चेतना के प्रयास होने चाहिएi समाज को भी चाहिए कि वस्तुस्थिति को समझकर समानता हेतु प्रयास करें तभी स्वस्थ व सुन्दर समाज की परिकल्पना सार्थक होगी i
संदर्भ-सूची
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