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कामेंग अर्धवार्षिक ई-पत्रिका/सहकर्मी समीक्षा जर्नल/जुलाई - दिसंबर,2024/खण्ड-1/अंक-1

कविता
ऑटो! तुम हो ना वहीं...

Received: 11 Apr, 2025 | Published online: 11 Apr, 2025 | Page No: 79-80 | URL: https://kameng.in/single.php?megid=1&pid=17


विभावरी
सहायक प्रोफेसर
भारतीय भाषाएँ और साहित्य, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय

मुझे पता है, तुम्हें पता है और हम जैसे तमाम लोगों को पता है कि



घर के बाहर हर रोज़ जमी बर्फ़ हटाना



कितनी ही बार हर रोज़ अपने जीने की राह बनाना है



 



या फिर लरज़ती उँगलियों में



उन हथेलियों की ऊष्मा तलाशना



जो अपनी गर्माहट सहित महफूज़ हैं अब



दिल के उस विशेष कोने में हमेशा के लिए



 



मुझे पता है तुम सोन्या की चीज़ें नहीं हटाना चाहते अपने घर अपने आसपास से



कितना अजीब है ना कि कोई व्यक्ति इस दुनिया की सीमाओं के परे जाकर भी



हमारे सबसे ज़्यादा क़रीब हो जाता है



 



मैं जानती हूँ, तुम जानते हो और हम जैसे तमाम लोग जानते हैं कि यह सच है



 



बचपन में मुझे बिल्लियाँ डरावनी लगती थीं,



अब मोहक लगती हैं



उम्र के इन बरसों में मैंने जाना है



कि बिल्लियाँ जीने का सबब भी हो सकती हैं



और एक ऐसे जीवन की उर्वर शक्ति भी, जो सिर्फ़ ख़ुद के लिए नहीं है



 



मारिसॉल तुम्हारी बिल्ली को दो बार टूना खिलाती है



और उसकी निजता का सम्मान करती है, जैसा तुम चाहते थे



तुम ठीक कहते हो ऑटो



यह दुनिया मूर्खों से भरी है, बेशक हम भी उनमें से एक हैं



हो सके तो टॉमी की मूर्खता के लिए उसे माफ़ करना



कई बार कुछ चीज़ें ना सीख पाना ही हमारे दायरे के भीतर होता है



 



और देखो मारिसॉल आज भी टॉमी को शेवी नहीं चलाने देती



सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वह मूर्ख है



बल्कि इसलिए कि वह तुम्हारे कहे का सम्मान करना जानती है



 



तुम्हें याद है उस सालसा का स्वाद,



जो मारिसॉल ने तुम्हें पहली बार मिलने पर खिलाया था!



कितनी ही बार खाना सिर्फ़ खाना नहीं होता,



दो लोगों के बीच बने संबंध की डोर भी तो होता है.



 



अब तो तुम्हें भी पता है न,



कि  मारिसॉल तुमसे काम होने के कारण तुम्हारे लिए खाना नहीं लाती



वह ये करती है क्योंकि वह



तुम्हारे भीतर की उदासी को पढ़ सकती है तुम्हारे अक्खड़पन में...



 



तुम जानते हो, मैं जानती हूँ और हम जैसे तमाम लोग जानते हैं कि



ज़िंदगी की कड़वाहट कई बार हमारी ऊपरी परतों पर वैसे ही जमी होती है



जैसे तुम्हारे दरवाज़े के बाहर हर रोज़ जमी बर्फ़



 



तुम जानते हो ऑटो कि मारिसॉल जैसे लोग भी ‘ऑटो’ होते हैं कई बार



आपकी ऊपरी परत की कड़वाहट को हर रोज़ खुरचते हैं अपनी कोशिशों से



और एक रोज़ आप पाते हैं उनमें अपना ही अक्स!


Published

कामेंग ई-पत्रिका

www.kameng.in

ISSN : 3048-9040 (Online)

Author

Vibhavari .

Assistant Professor

Indian Languages ​​and Literature

Gautam Buddha University

vibhavari@gbu.ac.in

How to Cite
विभावरी. “ऑटो! तुम हो ना वहीं...” कामेंग ई- पत्रिका, vol. 1, no. 1, अप्रैल, 2025, पृ. 79–80.
Issue

Volume 1|Issue 1| Edition 1 | Peer reviewed Journal | July-December, 2024 | kameng.in

Section

कविता

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Copyright (c) 2025 कामेंगई-पत्रिका

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