सहकर्मी समीक्षा जर्नल
Peer reviewed Journal
ISSN : 3048-9040 (Online)
साहित्यिक पत्रिका
Literary Journal
कामेंग अर्धवार्षिक ई-पत्रिका/सहकर्मी समीक्षा जर्नल/जुलाई - दिसंबर,2024/खण्ड-1/अंक-1
नवजागरण की शुरुआत से देश में एक नई लहर आई। रीतिकाल के गर्भ से निकलकर साहित्यकार अब समाज की और झाँक रहे थे। भारतेन्दु के प्रयासों से समस्यापूर्ति नाटक, निबंध, कहानियाँ और कविताएँ तो लिखी जा ही रही थी मगर समस्या को लक्ष्य किया जाए तो ये विधाएँ विचार प्रकट करने के लिए पूर्ण नहीं थी। इन विधाओं में लेखकों के शब्द भी सीमित ही रह जाते थे। अंग्रेजों के माध्यम से जब नॉवेल लिखने की प्रथा बंगला और मराठी में हुई तो झट से हिन्दी में भी उसे अपना लिया गया। यही सही समय था जब उपन्यास हिन्दी में लिखे जाने लगे थे और जो साहित्यकार समाज का वास्तविक चित्रण पेश करना चाहते थे उन्हें भी उचित अवसर प्राप्त हुआ। ‘वामा शिक्षक’ उपन्यास इसी अवसर की एक उत्तम पेशकश है, जिसका लिखा जाना युगपरिवर्तन के प्रारम्भिक आगाज़ के रूप में देखा जाने लगा था। उपन्यास में स्त्री के कई यथार्थ चित्र की प्रस्तुति की गई है जो पाठक को अंत तक अपने में समाए रखता है।
नवजागरण, रीतिकाल, भारतेन्दु मण्डल, उपन्यास, स्त्री शिक्षा,परंपरावादी, रूढ़िवाद
अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारतवर्ष मुग़लों के शासन में था। इनके स्थायित्व में कई तरह के बदलाव भारतीय सभ्यता में देखे गए जैसे-पर्दा प्रथा का प्रचलन, बाल विवाह की बढ़ती समस्याएँ, बहु-विवाह प्रथा का प्रचलन आदि। भारत में अशिक्षा, फैला अंधविश्वास एवं सवर्ण जातियों के बनाए गए नियम-कानून व पारंपरिक रूढ़िवादी मान्यताओं से ओत-प्रोत समाज निरंतर पिछड़ता चला जा रहा था। चूंकि माहिलाएँ ही तमाम तरह की परंपराओं के केंद्र में थी इसलिए महिलाओं की स्थिति अधिक भयावह प्रतीत होती थी। ऐसी परिस्थिति में समाज के द्वारा बने बनाए ढांचे को पुनः निर्मित एवं व्यवस्थित करने की आवश्यकता थी। अंग्रेजों के राज़ में शुरुआती दौर में कोई खास परिवर्तन सामाजिक स्तर पर तो आए नहीं, फलस्वरूप भारतीय जन जागृति का कार्य बंगाल से प्रारंभ होता है जिसे बंगाल नवजागरण के नाम से भी जाना जाता। बंगाल नवजागरण के जनक राजा राममोहन राय के प्रयासों से सम्पूर्ण देश में क्रांति की लहर आई। इस संदर्भ में इतिहासकार सुशोभन सरकार लिखते हैं- “अंग्रेज़ी राज, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और आधुनिक पश्चिमी संस्कृति का सबसे पहला प्रभाव बंगाल पर पड़ा जिससे एक ऐसा नवजागरण हुआ जिसे आमतौर पर बंगाल के रिनेसाँ के नाम से जाना जाता है। करीब एक सदी तक बदलती हुई आधुनिक दुनिया के प्रति बंगाल की सचेत जागरूकता शेष भारत के मुकाबले आगे रही।”[1] इससे हिन्दी प्रांत अछूता न रह सका। फलस्वरूप हिन्दी नवजागरण की भी शुरुआत होती है।
राम मोहन राय के प्रयासों से सती प्रथा पर रोक तो लगी ही साथ ही वे स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह और पुनर्विवाह के घोर समर्थक भी रहे। बंगाल में जिस तरह स्त्री स्वतंत्रता का विषय केंद्र में रहा उसी प्रकार हिन्दी क्षेत्रों में भी इन मुद्दों को अहम माना गया। भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत माने गए। भारतेन्दु ने ‘भारतेन्दु मण्डल’ के नाम से एक गोष्ठी भी बनाई जिससे साहित्य के माध्यम से समाज सुधार का प्रयत्न किया जा सके। रीतिकाल की दरबारी संस्कृति से विमुख होकर ये साहित्यकार अब समाज का दर्पण बनने को प्रस्तुत थे। भारतेन्दु के संदर्भ में कर्मेन्दु शिशिर अपनी किताब में लिखते हैं-“उन्होनें राष्ट्रीयता को राजनीतिक भावना तक सीमित नहीं रखकर उसे जनता की व्यापक और सामयिक समस्याओं से जोड़ दिया। स्त्री शिक्षा,विधवा-विवाह,जन शिक्षा,विदेश यात्रा जैसे सामाजिक सवालों को जोड़कर राष्ट्रीय चेतना को व्यापक और जनवादी स्वरूप प्रदान किया। यही कारण था कि वे जनता के साहित्य की बात करते थे और जनता के बीच साहित्य ले जाने को कटिबद्ध और प्रयत्नशील रहे।”[2] नवजागरण से साहित्यिक गतिविधियों में भी परिवर्तन आने लगे थे। अब प्रारम्भिक दौर के लेख एक ही तरह के विचारों से अभिप्रेरित थे जिनमें राष्ट्र हित, स्त्री शिक्षा, रूढ़ियों व समांती व्यवस्था का विरोध आदि विषयों को मुख्य से रूप से प्राथमिकता दी गई।
अंग्रेजों के आगमन से अंग्रेजी ‘नॉवेल’ परंपरा भी भारत में आई तब अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करने वाले व्यक्ति इसका अनुवाद भारतीय भाषाओं में प्रयोग के रूप में करने लगे थे। वहीं बंगाल के बँकिंचन्द्र ने अंग्रेजी भाषा में पहले ‘राजमोहंस वाइफ’ नामक नॉवेल लिखकर पहले भारतीय अंग्रेजी नॉवेलिस्ट बनने की खिताब हासिल की। नवजागरण काल की एक उम्दा साहित्यिक गद्य विधा के रूप में ‘उपन्यास’ लिखने की शुरुआत बंगला तथा मराठी भाषा में प्रथमतः हुई। तत्पश्चात हिन्दी भाषा में भी उपन्यास लिखे जाने लगे थे। लोकजागरण के लिए कविता,कहानी,आलोचना,निबंध व नाटक के साथ-साथ उपन्यास को भी एक सशक्त माध्यम के रूप में देखा जाने लगा था। वैभव सिंह इस संदर्भ में लिखते हैं- “भारतीय भाषाओं के आरंभिक उपन्यास भी राष्ट्रीय जागरण व सामाजिक प्रगति की आकांक्षाओं के विविध रूपों को प्रतिबिंबित करते हैं।”[3] ऐतिहासिक दृष्टिकोण से प्रारम्भिक उपन्यासों की महत्ता अधिक ही रही है। इस कड़ी में ‘वामा शिक्षक’ उपन्यास प्रारम्भिक दौर की महत्वपूर्ण स्त्री संबंधी उपन्यास है। मुंशी कल्याणी राय व मुंशी ईश्वरी प्रसाद का यह उपन्यास 1872 ई. में प्रकाशित हुआ। वामा शिक्षक की भूमिका में लिखा गया है कि अंग्रेजी सत्ता के कायम होने पर भारतवर्ष में पुनः लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा पर अधिक ध्यान दिया जा रहा था जिसके चलते एक पुस्तक ‘मिरतुल ऊरुस’ का जिक्र किया गया है। इसे मुस्लिमों की लड़कियों के पढ़ने हेतु लिखा गया था। कुछ इसी प्रकार की किताब लिखने का प्रयास लेखक करतें हैं। उपन्यास की भूमिका में इसकी पुष्टि होती है -“हिन्दूओं व आर्यों की लड़कियों के लिए अब तक कोई ऐसी पुस्तक देखने में नहीं आई कि जिससे उनको जैसा चाहिए वैसा लाभ पहुंचे और पश्चिम उत्तर देशाधिकारी श्रीमन्महराजाधिराज लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर की यह इच्छा है कि कोई पुस्तक ऐसी बनाई जाए कि उससे हिन्दूओं व आर्यों की लड़कियों को भी लाभ पहुंचे और उनकी शासना भी भली भांति हो।”[4] इस प्रकार से वामा शिक्षक उपन्यास की रचना हुई अपितु प्रारम्भिक दौर के लगभग सभी उपन्यास सामाजिक ही रहें एवं स्त्री के समस्याओं को उजागर करने वाले उपन्यास अधिक से अधिक लिखे गए। यह उपन्यास एक तरफ़ तो रूढ़िवादी मानसिकताओं को लिए आगे बढ़ती है और अपनी अंतिम परिणति तक पहुँच कर भी उन मानसिकताओं में निश्चित बदलाव देखा नहीं जा सकता। वे स्त्री स्वतंत्रा व शिक्षा के खिलाफ़ है। परंतु इसका एक दूसरा पक्ष पढे-लिखों का वर्ग है। ये वर्ग स्त्री शिक्षा की महत्ता को रेखांकित करता हुआ अपने पात्रों को सशक्त बनाने की चेष्टा करता है जिसमें उन्हें सफलता प्राप्त होती है या नहीं ये उपन्यास के सार को पढ़कर जानें-
लाला भगवानदास मेरठ के निवासी थे उनके दो पुत्र हुए बड़े का नाम जमुनादास और छोटे का मथुरादास। बड़ा बेहद हठी और ढीठ वहीं छोटा शांत सीधा-साधा, पिता की आज्ञा का पालन करने वाला। दोनों को फारसी पढ़ाया गया। पिता ने अंग्रेजी पढ़ने को कहा तो जमुनादास मारे आलस के इससे अधिक पढ़ने की इच्छा नहीं रखते थे। परंतु मथुरादास फारसी के बाद अंग्रेजी की शिक्षा भी लेने लगा। भगवानदास ने दोनों भाईयों का विवाह करवाया। विवाह के कुछ वर्ष के पश्चात दोनों भाईयों के ही घर दो-दो लड़कियों का जन्म होता है। जमुनादास ने अपनी लड़कियों का नाम राधा व पार्वती रखा एवं मथुरादास ने अपनी लड़कियों के नाम रखे गंगा व किशोरी। भगवानदास ने जमुनादास की नौकरी कचहरी में पच्चीस रुपए की लगवा दी और मथुरादास को गाँव की जिम्मेदारी संभालने को दे दी।
लड़कियां थोड़ी बड़ी हुई तो उनके शिक्षा के प्रबंध के लिए मथुरादास जमुनादास के पास गए। जमुनादास अपनी लड़कियों के शिक्षा के खिलाफ़ थे उन्होंने कहा –“लड़कियों के पढ़ाने लिखाने की चाल तो नहीं है जो हम लड़कियों को पढ़वाएँ,लिखवाएँ तो लोग नाम धरेंगे और ताने देंगें लोगों से नीची आँखें करनी पड़ेगी।”[5] आस-पड़ोस के लोगों की निंदा के विषय में सुनकर मथुरादास ने उसे भारत की महान पढ़ी-लिखी स्त्रीयों का उद्धारण पेश किया। जिसमें रुकमणी का कृष्ण को पत्र भेजने का उल्लेख करता है, मंडन मिश्र की स्त्री इतनी शस्त्रार्थ थी की शंकराचार्य तक को उसने पराजित कर दिया था और मीराबाई को कौन नहीं जनता वह अपनी कविताओं से कितनी प्रसिद्धि पा चुकी है। मथुरादास के समझाने पर भी वह अड़ा ही रहा,वह फ़िर बोला “मैंने माना कि लड़कियों का पढ़ना लिखना बहुत अच्छा है और पढ़ाने की चर्चा हो गई है अपर जो मैँ लड़कियों को पढ़ाऊँ लिखाऊँ तो मुझको क्या लाभ होगा-लड़कियां पराए घर का धन है विवाह हुए पीछे अपने अपने घर को चली जाएंगी फ़िर मैँ अपना रुपया उनके पढाने लिखाने में क्यूं खर्च करूँ और झगड़े में पड़ूँ।”[6] मथुरादास ने अब केवल अपनी लड़कियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की और ज्ञानों को बुलाया जो विधवा ब्राह्मणी थी। उसके पति के मृत्यु के पश्चात बच्चों को पढ़ाकर खुद का जीवन निर्वाह करती थी। मथुरादास की पत्नी शिक्षा का तो समर्थन करती थी परंतु वह सांसारिक नियमों से बंधी बंधाई भी थी। उसे गंगा के विवाह की चिंता होने लगी। जब उसने गंगा के विवाह का प्रस्ताव अपने पति के समक्ष रखकर वह बोली -“छुटपन में विवाह करने का पुन्य बहुत होता है और बुराई किसी तरह नहीं-बड़ी उम्र में विवाह किया और रुपया भी खर्च हुआ और पुन्य भी न मिला।”[7]तब ज्ञानों भी वहाँ मौजूद थी। ज्ञानों ने अपना ही उद्धारण देकर उसे बताया कि उसका भी बाल विवाह हुआ था और पति के मृत्यु के पश्चात कोई आपके प्रति संवेदना नहीं रखता न घरवाले और न ही ये समाज। ज्ञानों लगे हाथ ये भी गिनवाने लगी कि आस पड़ोस में ही कितनी बाल विधवाएं है- जिनमें हरीराम ब्राम्हण की पोती नौ वर्ष में विधवा हो गई थी, जवाहिर बनिये की बेटी का बाल विधवा होना आदि कई आस-पड़ोस नाते रिश्ते के उद्धारण पेश कर दिए इससे अंत में मथुरादास की पत्नी को सब समझ में आ गया। लेकिन जमुनादास अपनी बेटी राधा का विवाह करना चाहते थे जो गंगा से उम्र में छोटी थी मथुरादास ने फ़िर समझाने का प्रयास किया ““मेरी समझ में तो अभी ब्याह नहीं करना चाहिए राधा की उमर आठ वर्ष की है अभी जल्दी क्या है?”[8] विवाह तो जमुनादास को करवाना था सो उसने तो करवा ही दी। राधा के विवाह में गंगा ने हर एक एक पैसा जो कुछ भी शादी में खर्च हुआ उसका हिसाब किताब बही खाते में लिखकर रखा और राधा की शादी के बाद सारा हिसाब किताब जमुनादास को सौंप दिया। हिसाब किताब देखने पर जमुनादास को ये आभास हुआ कि अन्यथा उसने कितने पैसे गवाए जो उधारी में वे महाजन से लेकर आए थे। यदि गंगा ने हिसाब न रखा होता तब न जाने पैसों का हिसाब भी उसे न मिल पाता। यहाँ कुछ वर्ष के बाद मथुरादास की पुत्री गंगा के सयानी होने पर उसका भी विवाह राधा के ससुराल के निकट ही हुआ। न तो मथुरादास ने कोई व्यर्थ पैसे खर्च किए ना ही कोई अव्यवस्था। गंगा ने तो अपने सूझबूझ से अपने घर को ठीक से संभाल लिया। उसका ससुर फिरोज़ाबाद में नौकरी करते थे,उनकी इच्छा थी कि उनका बेटा चालीस-पचास रुपए कमाए तो वो अपने घर ही आकार रहें। गंगा ने अपने पति सीताराम से जब अपने ससुर की इस इच्छा के विषय में बोला तो उसने रिश्वत लेने का सोचा। गंगा ने इस सुझाव का पूर्वजोर विरोध किया और मन लगाकर काम करने की सलाह दी। खैर बाद में सीताराम ईमानदारी से काम करने लगे जिससे उसकी पद उन्नति हुई। बाद में तहसीलदार से उनकी नहीं बनी तो नौकरी से इस्तीफ़ा देकर पत्नी के कहने पर दुकान खोली। अब वे शहर के अमीरों में गिने जाने लगे थे। परंतु ईधर राधा की बेवकूफी के चलते उसका घर संसार सब तहस नहस हो रहा था। जब उसके घर बेटे का जन्म हुआ तो उसके चटोरेपन से उसके बेटे की जान गई। उसे लगता उसके पति ने हकीम को बुलवाकर बेटे की दवा कारवाई थी जबकि उसे झाड़-फूँक की जरूरत थी इसलिए वह मारा गया। गंगा जो उस उससे मिलने गई थी उसने उसे बताया “स्याने न्योतों से कुछ नहीं होता वह बड़े ठग होते हैं-उन्हें झूठी मूठी छू छू करने के सिवा और कुछ नहीं आता-भला सोचो तो सही कि कहाँ रोग और कहाँ झाड़ फूँक-यह दुष्ट बड़े हत्यारे होते हैं एक डॉ दवा दस्तों की अपने पास रखते हैं और वही बे सोचे समझे बालकों को देते हैं लग गई तो तीर नहीं तो तुक्का कभी ऐसा होता है कि जो बालक मरता न हो तो उनकी दवा से मर जाता है।”9 राधा को क्या समझ आया ये तो स्वयं राधा ही जानती होगी। उसके बाद उसके दो और पुत्र हुए। पति तुलसीराम दोनों को टीका लगवाना चाहते थे मगर राधा इसके खिलाफ़ थी। इस बार तो गंगा भी उसके अंधविश्वास को न तोड़ सकी। उसका बड़ा पुत्र दयाराम जब अपने साथवालों के साथ खेल रहा था तभी उसे टीका लगवाने वालों ने पकड़कर टीका लगवा दिया था। राधा ने तो गालियों की वर्षा कर दी थी उस दिन उन लोगों पर। उस वर्ष ऐसी शीतला निकली की उसके छोटे बेटे की मृत्यु टीका न लगवाने के वजह से हो गई। संतान के मृत्यु के दुख में राधा का पति अब अपने बड़े पुत्र को लेकर हमेशा सजग रहा लेकिन फ़िर मूर्खता का परिचय देते हुए एक दिन राधा ने उसे एक विवाह में ले जाने के लिए गहना पहनावा दिया। परिणाम स्वरूप गहने के लोभ ने उसकी जान ही ले ली और फ़िर राधा आजीवन संतानहीन ही रही। अपने भाग्य पर रोती रही। बीतते समय के साथ जमुनादास व मथुरादास की छोटी लड़की पार्वती और किशोरी का भी विवाह हुआ। किशोरी पढ़ाई के साथ-साथ सीने पिरोने में भी बहुत अच्छी थी। जब किशोरी माँ बनने वाली होती है उसके कुछ ही महीने पूर्व अचानक हैजे से उसके पति की मृत्यु हो जाती है। गंगा ने चिट्ठी लिखकर उसे ज्ञानों की तरह बनने को कहा। जिस तरह ज्ञानो अपने पति के मृत्यु के बाद भी अपने आत्मसम्मान की रक्षा करती है और अपने ज्ञान को दूसरों तक पहुंचाती है। ठीक उसी तरह तुम भी सदैव अच्छे कार्यों में अपने मन को लगाए रखना। चूंकि वह पढ़ी लिखी समझदार एवं गुणवान थी उसने अपने गृहस्थी को संभाला। साथ ही बेलबूटे व सीने पिरोने का काम करके वह अपने परिवार का लालन पोषण कर लेती थी। किशोरी का अब पूरा ध्यान अपने पुत्र की ओर ही था एक बरस का हुआ तब उसे टीका भी लगवा दिया, तबीयत खराब होने पर उसके डॉक्टर खाने ले जाकर भी दिखाया,अंधविश्वास टोना टोटका से उसे दूर रखा, खूब पढ़ाया लिखाया और अपने सीने पिरोने के काम से परिवार को भी चलाया। उसका बेटा दिल्ली शहर का सबसे रईस आदमी बनकर निकला जिसे बाद में सरकार और रईसों ने म्यूनिसिपल कमिश्नर नियुक्त किया।
पार्वती का जब विवाह हुआ था तब उसका पति केवल तेरह बरस का था। एक रोज़ वह अपने साथियों के साथ नहर में नहाने को गया वही बहकर उसकी मृत्यु हुई थी। पार्वती न पढ़ी लिखी थी न ही अन्य किसी प्रकार के काम में उसकी कोई दिलचस्पी थी। उसके कहे अनुसार उसके मन पसंद की चीजें उसे दी जाती जो मन करता सो वही किया करती। जमुनादास की पत्नी ने उसे पाठ पढ़ाया कि तू अकेली रहेगी और अपने पति की संपत्ति अपने नाम करवा लेगी तो खूब मज़े में रहेगी। पार्वती ने ठीक वैसा ही किया अपने नाम पर संपत्ति का बंटवारा करके अलग हो गई। आगे होना क्या था किसी मुगलानी के द्वारा ठगी गई और अपने सारे पैसे गवा दिए। उसके ससुराल वालों ने उसे अपने पास फ़िर रख तो लिया मगर अब उसकी एक न चली।
शिक्षा के अभाव से गंगा और किशोरी सा जीवन कभी राधा और पार्वती ने नहीं जिया। इन अभावों की पूर्ति आप किसी भी प्रकार से नहीं कर पाते। सही समय पर अपने ज्ञान का प्रयोग कर व्यक्ति स्वयं को बुरी से बुरी परिस्थिति से भी निकाल सकता है। उपन्यास में लेखक ने ज्ञानों नामक महिला शिक्षिका को चुना जिससे उपन्यास अधिक व्यवस्थित लगने लगती है। गंगा एवं किशोरी के व्यक्तित्व के निर्माण में शिक्षक की भूमिका ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही। मथुरादास के रूप में लेखक ने समाज में फ़ैले कुरुतियों का विरोध और लड़कियों के शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने का प्रयास किया है। वे सुधारवादी विचारों से परिपूर्ण पात्र थे। ज्ञानों व मथुरादास जैसे पात्रों के संयुक्त प्रयास से उपन्यास को सही दिशा प्राप्त होती है। वहीं लेखक ने जमुनादास जैसे पात्र का उपन्यास में निर्माण कर एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित किया है जो स्वयं अधिक पढ़ा-लिखा नहीं है। मगर जो कम पढे लिखे या अशिक्षित व्यक्ति होते हैं उनकी आकांक्षा अपने संतान को उनसे बेहतर शिक्षा व अवसर देने की होती है जिसमें जमुनादास पूरी तरह से नाकाम साबित होते हैं। अपनी भावी पीढ़ी को वे सक्षम बनाने में असफ़ल रहे हैं। उपन्यास में डिटेलिंग पर अधिक काम किया गया है जैसे दो बहनों के बीच पत्रात्मक संवाद उनकी अच्छी परवरिश एवं शिक्षा को दर्शाती है, रिश्वत खोरी, टीका लगवाने के महत्व को दर्शाया गया, अंधविश्वास से होने वाले प्रभाव को भली-भाँति प्लॉट किया गया, स्त्रीयों के आभूषण प्रियता को दर्शाया गया आदि। इस तरह के अनेक डिटेलिंग का सहारा उपन्यास में लिया गया है। निसंदेह इस उपन्यास के माध्यम से एक बेहतर समाज निर्माण करने का प्रयास लेखकों द्वारा किया गया जिसका प्रारम्भिक दौर में लिखा जाना ही प्रगति के सूचक के रूप में देखा गया है।
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Smurti Rekha Mallick
Research Scholar
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Volume 1|Issue 1| Edition 1 | Peer reviewed Journal | July-December, 2024 | kameng.in
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