शोधालेख
राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना-दृष्टि
-डॉ. मनीष तोमर
अतिथि प्राध्यापक
हिंदी विभाग, असम विश्वविद्यालय, सिलचर
सारांश:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल स्वाधीनता आंदेलन की उथल- पुथल से भरे उस दौर के लेखक थे जिस दौर में राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पटल पर बंग-भंग से लेकर, प्रथम विश्वयुद्ध, सोवियत समाजवादी क्रांति, जलियांवाला बाग जैसी घटनाएँ घट रही थीं और बहिष्कार, स्वदेशी, स्वराज, असहयोग, अहिंसात्मक और क्रांतिकारी संगठनों के माध्यम से अनेक राजनीतिक आंदोलन चल रहे थे। आचार्य शुक्ल की साहित्यिक चिन्ताओं का जन्म राष्ट्रीय आंदोलन की इसी उथल-पुथल के बीच हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन की जरूरतों से प्रेरित होकर उन्होनें गम्भीर साहित्यिक-वैचारिक लेखन किया। राष्ट्रीय आंदोलन ने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जो-जो प्रश्न खड़े किये, वे सभी उनके लेखन के केन्द्र में रहे। उस समय स्वाधीनता आंदोलन में राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण बना हुआ था। हमारी संस्कृति, साहित्य, राष्ट्र का विकास किस दिशा में होना चाहिए? परंपरा की दिशा में या आधुनिकता की? हम किसके आधार पर ज्यादा शक्तिशाली बनेंगे?- इस तरह के तमाम प्रश्न प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों के लिए प्राथमिक महत्व रखते थे।
बीज शब्द:
उपनिवेशवाद, आंदोलनकर्ता, उग्रता, विचारधारा , स्वदेशी आदि
मूल विषय:
स्वाधीनता आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने फरवरी 1907 के ‘हिन्दुस्तान रिव्यू’, इलहाबाद में ‘व्हाट हैज इण्डिया टू डू?’ शीर्षक से एक लेख लिखा था। इस लेख में उन्होनें जो कुछ लिखा, वह स्वाधीनता आंदोलन सम्बन्धी उनके विचारों को जानने की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह लेख आचार्य शुक्ल ने बंग-भंग विरोधी आंदोलन के बाद लिखा था जिसकी देन ‘स्वदेशी’ और ‘बहिष्कार’ जैसे आंदोलन थे। इसके आरम्भ में ही उन्होनें कहा था कि ‘‘हमें एक साथ ऐसे लोगों की जरूरत है, जो सामाजिक-सुधारक, राजनीतिक-आंदोलनकर्ता, कवि और शिक्षाविद हों।’’1 इसमें ध्यान देने की बात यह है कि शुक्ल जी ‘राजनीतिक-आंदोलनकर्ता’ और ‘कवि’ दोनों को एक ही संदर्भ में याद करते हैं, जो उनके दृष्टिकोण में आंदोलन के साथ साहित्य के सम्बन्ध को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करता है। अपने लेख में शुक्ल जी सामाजिक बुराइयों के निष्क्रमण और नयी शिक्षा के प्रचार पर जोर देते हैं, ताकि लोगों में उच्च दायित्वबोध को पैदा किया जा सके- ‘‘ऐसी शिक्षा, जो दूसरी बातों के अतिरिक्त एक उच्च उत्तरदायित्व के भाव से किसी को युक्त कर देती है और उसकी महत्वाकांक्षाओं के लिए ऐसे क्षेत्र प्रदान करती है, जो सलाम बजाने या माल गुजारी इकट्ठा करने के काम से बड़े होते हैं।’’2 शिक्षा का वे यह अर्थ भी बताते हैं कि उसके माध्यम से अशिक्षित जनता तक सामान्य महत्व के विषयों पर व्यक्त की गयी नेताओं की राय पहुँचायी जाए, जिससे कि समय आने पर उसके अज्ञान के कारण उनके सहयोग से वंचित न होना पड़े। इसी संदर्भ में आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि ‘‘प्रत्येक ग्रामवासी को यह जानना चाहिए कि अधिक काम करने के बाद भी उसे कम क्यों मिलता है, प्रत्येक नागरिक को यह बताया जाना चाहिए कि उसकी सेवाओं की माँग कम क्यों है और वास्तव में प्रत्येक भारतवासी को यह साफ-साफ पता होना चाहिए कि दिन प्रतिदिन उसका देश गरीब क्यों होता जा रहा है! यदि आप चाहें तो इसे राजनीतिक शिक्षा कह सकते हैं। इस प्रकार की शिक्षा देने के लिए हमें विभिन्न तरीके और साधन अपनाने होंगे। स्कूल और कॉलिज ही इस शिक्षा के स्थान नहीं होने चाहिए। सार्वजनिक व्याख्यानों के द्वारा हम बहुत कुछ कर सकते हैं। सुविधाजनक स्थानों पर ऐसे व्याख्यानों का आयोजन किया जाना चाहिए और लोगों को सुदूर देहातों में जाकर भारतीय जनसमूह को उन परिस्थितियों से परिचित कराना चाहिए, जो उन्हें प्रभावित कर रही हैं। यहाँ उन्हें इसके साथ ही कर्म का मार्ग भी बताना चाहिए।’’3
ज्यादातर राजनीतिक आंदोलनों के मूल में आर्थिक कारण होते हैं। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के साथ भी यही बात थी। आचार्य शुक्ल की दृष्टि चूँकि भारतीय जनता की आर्थिक स्थिति पर थी, इसलिए उन्होनें ब्रिटिश शासन के साम्राज्यवादी चरित्र को आसानी से पहचान लिया। वे लिखते हैं कि ‘‘ जहाँ तक हम देख पाये हैं, साम्राज्यवाद ही भारत में ब्रिटिश राष्ट्र की नीति की प्रेरक शक्ति रहा है।’’4 उन्हें बंगाल के स्वदेशी आंदोलन में राष्ट्र की आर्थिक प्रगति का मार्ग दिखायी पड़ा। उन्होंने अंग्रेजों का भरोसा न कर भारतीय जनता को भुखमरी और बेकारी से बचाने के लिए अपनी औद्योगिक इकाई लगाने की आवश्यकता पर बल दिया और स्पष्ट कर दिया कि ‘‘इस घड़ी में जो हमारे साथ है, वे मित्र हैं; जो हमसे अलग है, वे उदासीन हैं और जो हमारा विरोध करते हैं, वे शत्रु हैं।’’5
आगे चलकर आचार्य शुक्ल साम्राज्यवाद के वास्तविक चरित्र की पहचान प्रथम विश्व-युद्ध के संदर्भ में उजागर करते हैं। फरवरी 1919 में ‘लोभ या प्रेम’ शीर्षक से प्रकाशित अपने निबन्ध में शुक्ल जी लिखते हैं कि ‘‘कोई-कोई देश लोभवश इतना अधिक माल तैयार करते हैं कि उसे किसी देश के गले मढ़ने की फिक्र में दिन रात मरते रहते हैं। जब तक यह व्यापारोन्माद दूर ना होगा तब तक इस पृथ्वी पर सुख-शान्ति न होगी।’’6 साम्राज्यवाद के औपनिवेशिक शोषण के प्रति शुक्ल जी का दृष्टिकोण उनके इस कथन से और अधिक स्पष्ट होता है, ‘‘योरप के देश इस धुन में लगे कि व्यापार के बहाने दूसरे देशों से जहाँ तक धन खींचा जा सके बराबर खींचा जाता रहे। पुरानी चढ़ाइयों की लूटपाट का सिलसिला आक्रमण काल तक ही-जो बहुत दीर्घ नहीं हुआ करता था- रहता था। पर योरप के अर्थोंन्मादियों ने ऐसी गूढ़, जटिल और स्थायी प्रणालियाँ प्रतिष्ठित कीं जिसके द्वारा भूमण्डल की न जाने कितनी जनता का क्रम-क्रम से रक्त चुसता चला जा रहा है, न जाने कितने देश चलते फिरते कंकालों के कारागार हो रहे हैं।’’7
देश भक्ति आचार्य शुक्ल के सम्पूर्ण साहित्य के मूल में है। यही उनके साहित्य सृजन का प्रेरक तत्व है। सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य के मूल्यांकन के लिए, और विशेष रूप से आधुनिक हिन्दी साहित्य के मूल्यांकन के लिए उन्होनें बुनियादी प्रतिमान के रूप में जिस दृष्टिकोण का इस्तेमाल किया, वह उनकी राष्ट्रीय चेतना से संपन्न दृष्टि ही है, जो देश की राजनीति और राजनीतिक आंदोलनों का प्रतिफल है। उनके साहित्य सृजन और विवेचन में राजनीतिक आंदोलनों की जो भूमिका रही, वह उनके ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में आधुनिक काल के रचनाकारों पर की जाने वाली उनकी टिप्पणियों से स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। वे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हों या बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, मैथलीशरण गुप्त हों या रामनरेश त्रिपाठी, या फिर माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन और दिनकर, उन्होनें सभी के साहित्य पर इस दृष्टि से विचार किया है कि उनकी राजनीतिक चेतना कैसी थी और राजनीतिक आंदोलनों से उनका कैसा सम्बन्ध था। प्रेमघन के बारे में वे लिखते हैं कि ‘‘देश की राजनीतिक परिस्थितियों पर इनकी नजर बराबर बनी रहती थी। देश की दशा सुधारने के लिए जो राजनीतिक या धर्म सम्बन्धी आंदोलन चलते रहे, उन्हें ये बड़ी उत्कण्ठा से परखा करते थे। जब कहीं कुछ सफलता दिखायी पड़ती, तब लेखों और कविताओं द्वारा हर्ष प्रकट करते; और जब बुरे लक्षण दिखायी देते, तब क्षोभ और खिन्नता। कांग्रेस के अधिवेशनों में वे प्राय: जाते थे।’’8 इसी प्रकार मैथलीशरण गुप्त के बारे में सूचित किया है कि ‘‘इधर के राजनीतिक आंदोलनों ने जो रूप धारण किया उसका पूरा आभास (इनकी) पिछली रचनाओं में मिलता है।’’9 इस सम्बन्ध में उनका यह कथन उल्लेखनीय है कि ‘‘ शासन की अव्यवस्था और अशान्ति के उपरान्त अंग्रेजों के शान्तिमय और रक्षा पूर्ण शासन के प्रति कृतज्ञता का भाव भारतेन्दु काल में बना हुआ था। इससे उस समय की देश-भक्ति सम्बन्धी कविताओं में राजभक्ति का स्वर भी प्राय: मिला पाया जाता है। देश की दुख-दशा का प्रधान कारण राजनीतिक समझते हुए भी उस दुख-दशा से उद्धार के लिए कवि लोग दयामय भगवान को ही पुकारते मिलते हैं। कहीं-कहीं उद्योग धन्धों को न बढ़ाने, आलस्य में पड़े रहने और देश की बनी वस्तुओं का व्यवहार न करने के लिए वे देशवासियों को भी कोसते पाये जाते हैं। सरकार पर रोष या असन्तोष की व्यंजना उनमे नहीं मिलती। कांग्रेस की प्रतिष्ठा होने के उपरान्त भी बहुत दिनों तक देश भक्ति की वाणी में विशेष बल और वेग न दिखायी पड़ा। बात यह थी कि राजनीति की लम्बी चौड़ी चर्चा भर साल में एक बार धूम धाम के साथ थोड़े से शिक्षित बड़े आदमियों के बीच हो जाया करती थी, जिसका कोई स्थायी और क्रियोत्पादक प्रभाव नहीं देखने में आता था। अत: द्विवेदी काल की देश भक्ति सम्बन्धी रचनाओं में शासन पद्धति के प्रति असन्तोष तो व्यंजित होता था, पर कर्म में तत्पर करने वाला, आत्मत्याग करने वाला जोश और उत्साह न था। आंदोलन भी कड़ी याचना के आगे नहीं बढ़े थे।’’10 इसी सम्बन्ध में वे आगे लिखते हैं कि ‘‘तृतीय उत्थान में आकर परिस्थिति बहुत बदल गयी। आंदोलनों ने सक्रिय रूप धारण किया और गाँव-गाँव राजनीति और आर्थिक परतन्त्रता के विरोध की भावना जगायी गयी। सरकार से कुछ माँगने के स्थान पर अब कवियों की वाणी देशवासियों को ही ‘स्वतन्त्रता देवी की वेदी पर बलिदान’ होने को प्रोत्साहित करने में लगी। अब जो आंदोलन चले वे सामान्य जनसमुदाय को भी साथ लेकर चले। इससे उनके भीतर अधिक आवेश और बल का संचार हुआ।’’11 आचार्य शुक्ल के इन कथनों से साफ साफ अनुमान लगाया जा सकता है कि वे भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन और आधुनिक हिन्दी कविता के पारस्परिक गहरे सम्बन्धों को कितनी बारीकी से निरूपित कर रहे थे। जहाँ भारतेन्दु युग में शासन के प्रति कृतज्ञता का भाव भी बना हुआ था इसीलिए कविता में सरकार के प्रति रोष या असन्तोष का भाव व्यक्त नहीं किया गया! द्विवेदी युग में भी कविता में शासन के प्रति असन्तोष तो व्यक्त हुआ, परन्तु उसमें कर्म और त्याग के लिए तत्पर कराने वाला उत्साह न दिखायी पड़ा! द्विवेदी युग के बाद स्वाधीनता-आंदोलन किसानों तक फैला, परिणामत स्वरूप कवियों की वाणी बलिदान की प्रेरणा देने लगी!
हालांकि इस पूरे विवेचन में शुक्ल जी के दृष्टिकोण में एक समस्या दिखायी देती है। वह यह कि तृतीय उत्थान के जिन कवियों की वाणी में राजनीति से लेकर सामाजिक आंदोलनों तक की प्रतिध्वनि आचार्य शुक्ल को सुनायी पड़ती है वे कवि दिनकर, नवीन और माखनलाल चतुर्वेदी हैं। शुक्ल जी को प्रसाद और निराला जैसे कवियों का स्वाधीनता आंदोलन से कोई विशिष्ट सम्बन्ध दिखायी नहीं पड़ता। उनके काव्य में उग्रता भरे उस दौर की प्रतिध्वनि नहीं सुनायी पड़ी। अगर पंत में उन्हें यह सुनाई भी पड़ा तो कविता के धरातल पर उन्हें संतोष न दे सका। यह छायावाद के प्रति शुक्ल जी की अवधारणा का ही परिणाम था कि वे यह नहीं पहचान सके कि इन कवियों में स्वाधीनता आंदोलन की प्रतिध्वनि और अधिक गहराई से सुनायी पड़ती थी।
आचार्य शुक्ल के जीवनीकार चन्द्रशेखर शुक्ल लिखते हैं ‘‘शुक्ल जी राजनीति में उग्र विचार रखते थे। उन्हें तिलक की नीति पसन्द थी।... गोखले की विद्याबुद्धि और त्याग की वे प्रशंसा करते थे और सर तेजबहादुर सप्रू, सी.वाई.चिन्तामणि और वी.श्रीनिवास शास्त्री से प्रभावित थे, पर उनकी नीति से उन्हें सन्तोष न था।’’12 बंग-भंग विरोधी आंदोलन के साथ भारतीय स्वाधीनता आंदोलन सक्रियता के नए दौर में प्रवेश करता है और आचार्य शुक्ल की राजनीतिक चेतना बंग-भंग विरोधी और स्वदेशी एंव बहिष्कार आंदोलनों से ही परिपक्व हुई। शुक्ल जी स्वदेशी आंदोलन में अग्रणी भूमिका तिलक की ही मानते थे। शुक्ल जी पर तिलक के कर्म योग का गहरा प्रभाव था। कर्म और कर्म-सौन्दर्य आचार्य शुक्ल के लिए ऐसा प्रतिमान रहा है जिस पर उन्होनें हमेशा कवियों और काव्य-धाराओं को परखा। काव्य क्या कर सकता है इसके सम्बन्ध में उनका मानना था कि ‘‘शुद्ध ज्ञान या विवेक में कर्म की उत्तेजना नहीं होती। कर्म के लिए मन में कुछ वेग का आना आवश्यक है।’’13 अपने ‘श्रद्धा-भक्ति’ शीर्षक निबन्ध में शुक्ल जी लिखते है- ‘‘संसार से तटस्थ रहकर शान्ति-सुखपूर्वक लोकव्यवहार सम्बन्धी उपदेश देनेवालों का उतना महत्व हिन्दू धर्म में नहीं है, जितना संसार के भीतर घुसकर उसके व्यवहारों के बीच सात्विक विभूति की ज्योति जगाने वालों का है। हमारे यहाँ उपदेशक ईश्वर के अवतार नहीं माने गए हैं। अपने जीवन द्वारा कर्म-सौंदर्य संघटित करने वाले ही अवतार कहे गये हैं। कर्म-सौंदर्य के योग से उनके स्वरूप में इतना माधुर्य आ गया है कि हमारा हृदय अपने आप उनकी ओर खिंचा पड़ता है।’’14 आचार्य शुक्ल का कर्मवाद उन्हे तोलस्तोय के ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ ही नहीं, महात्मा गाँधी के ‘सत्याग्रह’ के विरोध तक ले गया। हिन्दी साहित्य का इतिहास में उन्होनें कहा है कि ‘‘साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्ध तोलस्तोय की धर्म-बुद्धि जगाने वाली वाणी का ‘भारतीय अनुवाद’ महात्मा गाँधी ने किया।’’15
सितम्बर 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन हुआ था, जिसमें महात्मा गाँधी ने असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकृत कराया। 1921 में बाँकीपुर, पटना से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र ‘एक्सप्रेस’ में आचार्य शुक्ल ने कई किस्तों में ‘नन-कोऑपरेशन एण्ड नन-मर्केन्टाइल क्लासेज’ शीर्षक से एक लेख लिखकर असहयोग-आंदोलन की कड़ी आलोचना की। ‘दस्तावेज’ (गोरखपुर) के आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-विशेषांक (अक्टूबर 83, जनवरी 84) में उसका एक अंश अनुदित रूप में ‘असहयोग और अव्यापारिक श्रेणियाँ’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस लेख में आचार्य शुक्ल ने असहयोग आंदोलन को एक अनिश्चित योजना, सतही विद्रोह और कोलाहल मात्र बताया। इस आंदोलन के बारे में शुक्ल जी का मानना था कि ‘बिना सोचे विचारे लोग इसकी ओर दौड़ पड़े।’ इतना ही नहीं गाँधी के नेतृत्व पर भी शुक्ल जी ताज्जुब जताते हुए कहते हैं कि‘‘लोगों की गाँधी के प्रति आस्था क्यों है, सत्याग्रह आंदोलन की नियति देखकर मि. गाँधी की प्रणाली के प्रति विश्वास डिग जाना चाहिए था।’’16 गाँधी के प्रति इस अंधभक्ति को देखकर शुक्ल जी का कहना था ‘‘क्योंकि व्यक्तित्वों के प्रति रहस्यवादी भक्ति भारतीय जन-समूह की चारित्रिक विशेषता है।’’17 गाँधी के नेतृत्व को लेकर शुक्ल जी का यह भी मानना था कि ‘‘लोकमान्य तिलक की मृत्यु ने राष्ट्रवादियों के पूरे दल को मि. गाँधी की अनुकम्पा पर छोड़ दिया था।’’18 जब भारतीय जनता अंग्रेजी राज के दमन और अत्याचार के कुचक्र से क्षुब्ध थी, खिलाफत का सवाल मुसलमानों को खौला रहा था और जलियांवाला बाग का हत्याकाण्ड राष्ट्रीय अपमान का प्रतीक बन गया था, तब समूची भारतीय जनता अंग्रेजी सरकार के प्रति संघर्ष करना चाहती थी। ऐसी परिस्थितियों में शुक्ल जी का तिलक के ‘होमरूल’ की नीतियों में आस्था और ‘असहयोग’ का विरोध सही नहीं जान पड़ता। इस सम्बन्ध में शुक्ल जी का कथन है, ‘‘असहयोग आंदोलन के ऐसे लक्ष्यहीन और असन्तुलित चरित्र का पर्दाफाश करने तथा इसकी पताका के नीचे छद्मवेश में छिपी हुई दुष्ट शक्तियों का पर्दाफाश करने के लिए जनता के समक्ष स्पष्ट और सुनिश्चित स्वराज्य (होमरूल) विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।’’19
असहयोग का विरोध करने वाले शुक्ल जी अकेले न थे। एनी बेसेन्ट, मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय, विपिन चन्द्रपाल सरीखे कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं ने गाँधी के असहयोग प्रस्ताव का पुरजोर विरोध किया। सभी ने इस प्रस्ताव को एक सिरे से ना केवल खारिज किया बल्कि इस प्रस्ताव को अव्यवहारिक, अनिश्चित, मूर्खतापूर्ण, गैरकानूनी और खतरनाक बताया। इनके समर्थन में शुक्ल जी लिखते है कि -‘‘कलकत्ता के विशेष कांग्रेस अधिवेशन में वयोवृद्ध एंव सम्मानित नेता केवल नगण्य ही नहीं हुए अपितु गाँधी के अनुयायियों द्वारा ये खुलेआम अपमानित किये गये।’’20 लेकिन जनता ने सारे विरोध के बावजूद इस प्रस्ताव को पास किया।
भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के हर विकास को ध्यान से देख रहे ‘लेनिन’ ने भी असहयोग आंदोलन को उठता देखकर 1921 में लिखा- ‘‘एशियाई देशों की जनता विश्व राजनीति और साम्राज्यवाद के क्रांतिकारी विध्वंस की एक महत्वपूर्ण शक्ति बनती जा रही है। ऐसे देशों में भारत सबसे आगे है जहाँ क्रांति की ओर बढ़ने की तीव्रता दिखायी दे रही है।’’21 गाँधी के विषय में उन्होंने कहा कि ‘‘भारतीय जनता को प्रेरित करने और उसे नेतृत्व प्रदान करने के लिहाज से वे क्रांतिकारी हैं।’’ जबकि दूसरी ओर आचार्य शुक्ल ने लिखा कि ‘‘इसके बहुत से विचारशील नेता जिनमें महाराष्ट्रीय लोग भी सम्मिलित हैं, अपनी पीठ पर तमाम सामाजिक एंव आर्थिक विचारधाराओं की गठरी लादे हुए कांग्रेस की प्रतिष्ठा कायम रखने के लिए चुपचाप असहयोगियों की कतार में शामिल हो गये।’’22 प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बदलती वैश्विक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि पर ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू किये गये काले कानूनों और दमन से क्षुब्ध मध्यवर्ग, खिलाफत से बेचैन मुसलमान, महँगाई के मारे मजदूर, सामन्ती जुल्म और अँग्रेजी राज के छल से क्रोधित किसान ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार खड़े थे। इसी संघर्ष का मसौदा लेकर सही समय पर गाँधी आगे आये। शायद राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिघटनाओं और संघर्ष की माँग की परिस्थितियों में शुक्ल जी ठीक से तादात्म्य नहीं बैठा पा रहे थे और आंदोलन के नेतृत्व का राज व्यक्तित्व की सफलता में तलाश रहे थे जबकि असहयोग आंदोलन गाँधी के व्यक्तित्व की सफलता नहीं, परिस्थितियों का तकाजा था।
असहयोग आंदोलन के सम्बन्ध में शुक्ल जी का मानना था कि यह आंदोलन वस्तुतः व्यापारी वर्ग के हित में है तथा आंदोलन का कार्यक्रम भावनात्मक अधिक है, ठोस और व्यावहारिक कम। आचार्य शुक्ल का मानना था कि जिस व्यापारिक और पूँजीपति वर्ग ने असहयोग आंदोलन में सबसे ज्यादा उत्साह दिखाया और गाँधी का समर्थन किया, यह वही वर्ग था जो अभी तक अँग्रेजी राज के संरक्षण और सुविधाओं में पलकर मोटा होता रहा। शुक्ल जी की नजरों में चूंकि यह आंदोलन मुख्यत: व्यापारी वर्ग का था और इस आंदोलन के जरिए व्यापारी वर्ग, कृषक वर्ग को अपने प्रभाव के मातहत लाना चाहता था, इसलिए उन्होनें देहातों में राष्ट्रीय आंदोलन के प्रसार के प्रयत्न को व्यापारी वर्ग के, असहयोग आंदोलन में उत्साह के रूप में देखा। असहयोग आंदोलन के असन्तुलित चरित्र को दिखाते हुए शुक्ल जी ने लिखा है कि ‘‘इस आंदोलन में व्यापारी वर्ग को कोई त्याग नहीं करना पड़ा; सारा त्याग मध्यवर्ग के मत्थे डाल दिया गया है।’’23 इस लेख में गैर व्यापारिक वर्गों के पक्ष से असहयोग आंदोलन की खामियों और अव्यवहारिकता पर प्रकाश डालते हुए शुक्ल जी सवाल उठाते हैं कि ‘‘इस आंदोलन में त्याग और बलिदान किनसे माँगा जा रहा है। जाहिर है छात्रों से शिक्षा संस्थाएं छोड़ने के लिए कहा जा रहा है, नौकरी पेशा वर्ग से त्यागपत्र देने के लिए और किसानों को राजस्व भुगतान न कर, जमीन नीलामी का खतरा उठाने के लिए। लेकिन गाँधी की छत्र-छाया में आंदोलन का नेता बने हुए व्यापारी वर्ग से क्या बलिदान माँगा जा रहा है?’’ इस स्थिति का अवलोकन करने के बाद शुक्ल जी व्यापारी वर्ग की उन्नति और असहयोग आंदोलन द्वारा उसकी पक्षधरता के सम्बन्ध में लिखते हैं- ‘‘पश्चिम के राष्ट्र अपने को जिससे मुक्त करने की चेष्टा कर रहे हैं उसी पूँजीवाद की ओर यह एक बढ़ता कदम है। वह पूँजी बटोरने और समाज में व्यक्तिवादी जीवन मूल्यों के क्षुद्र अमरीकी मानदण्ड स्थापित करने का प्रयास भर है।’’24 कहा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल सामन्ती संस्कृति की कुरूपताओं से ग्रस्त इस पराधीन देश में स्वाधीनता आंदोलन के विभिन्न पहलुओं की बारीकियों और तत्कालीन जरूरतों को पहचानने से ज्यादा ध्यान पूँजीवाद की कुरूपताओं पर देने लगते हैं जो अन्ततः भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए समस्याप्रद हो जाता है।
अपने लेख की शुरुआत शुक्ल जी अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारतीय समाज व्यवस्था के वर्णन से करते हैं। शुक्ल जी के मुताबिक अंग्रेजों के आगमन से पहले के भारतीय समाज में मुख्यतः दो विभाजन थे, व्यापारिक और अव्यापारिक। अव्यापारिक वर्गों में कृषि और राजकीय सेवाओं से जुड़े लोग थे। हर वर्ग या समुदाय के काम और अधिकार के अपने क्षेत्र थे, जिनमें वे सन्तुष्ट थे। व्यापारी कृषि या राजकीय क्षेत्र में नहीं घुसते थे, कृषि या राजकीय सेवाओं से जुड़े लोग व्यापार नहीं करते थे। शुक्ल जी के ही शब्दों में ‘‘इस प्रकार समाज में पूरा सन्तुलन रखा गया।’’ यह सामंजस्यपूर्ण सामन्ती समाज अंग्रेजों के आने से टूट गया- ‘‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में यूरोप के घृणित व्यापारवाद ने भारत में कदम रखा और समाज के द्विस्तरीय विभाजन के आधार पर जो सामंजस्य इतने दिनों से चला आ रहा था उसे अस्त-व्यस्त कर दिया।’’25 शुक्ल जी की यह धारणा विचारणीय है कि अंग्रेजों के पहले सामन्ती भारतीय समाज ‘सन्तुलित’ और ‘सामंजस्यपूर्ण’ समाज था। राष्ट्रीय आंदोलन के सन्दर्भ में शुक्ल जी का यह दृष्टिकोण उचित नहीं जान पड़ता। तत्कालिक समाज व्यवस्था का वर्णन करते समय शुक्ल जी सामन्ती शोषण के कई तत्वों को नजरअंदाज करते हैं, जिस पर तत्कालिक समाज व्यवस्था टिकी थी। इतना ही नहीं, व्यवस्था के वर्णन में शुक्ल जी सर्व-साधारण की घोर दरिद्रता और लगान के दलदल में फँसे रैयत के सवालों पर चुप रहे, क्योंकि अंग्रेजी राज के खिलाफ सामन्ती समाज को सन्तुलित और सामंजस्यपूर्ण कहना, लगान और रैयत पर सामन्ती शोषण के सवालों पर चुप रहकर ही सम्भव था।
शुक्ल जी की दूसरी धारणा यह है कि भारत में कम्पनी-राज और ब्रिटिश शासन का मुख्य आधार यहाँ का व्यापारी और पूँजीपति वर्ग रहा है- ‘‘कम्पनी अपने व्यापारिक प्रचार-प्रसार के लिए बनियों पर आश्रित थी, इसलिए उसने केवल उन्हीं के अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न की।’’26 शुक्ल जी का यह भी मानना था कि ब्रिटिश सरकार ने सरकारी राजस्व नीति, भूमि सम्बन्धी जटिल कानूनी प्रक्रियाओं, लोभी वकीलों, बनियों, सरकारी कर्मचारियों के बल पर कृषक वर्गों (किसान और जमींदार) को तबाह कर दिया। इसका उल्लेख करते हुए शुक्ल जी लिखते हैं कि ‘‘जमीन से जुड़े वर्ग जबकि प्रतिदिन इस प्रकार विनाश की ओर खींचे जा रहे थे, नगरों के बनिया आयात-निर्यात उद्योग द्वारा प्रचुरतम लाभ पैदा कर रहे थे।... जबकि एक वर्ग सरकार द्वारा अपने ऊपर लादी गयी असुविधाओं के मातहत श्रम कर रहा है, दूसरा वर्ग ब्रिटिश संरक्षण के सारे आशीर्वादों का पूरा आनन्द लेता हुआ उसका मजाक उड़ा रहा है।’’27 भारतीय पूँजीपति वर्ग को कम्पनी राज का मुख्य आधार मानने का शुक्ल जी का यह दृष्टिकोण उचित नहीं जान पड़ता। सर्वप्रथम तो शुक्ल जी द्वारा किया जाने वाला श्रेणी विभाजन ही सही नहीं है कि वे किसान और जमींदार को एक ‘कृषक वर्ग’ कहते हैं और किसान से जमींदार तक (जिसमें राजकीय सेवाओं से जुड़े सरकारी कर्मचारियों को भी रखा गया है) को एक साथ रखकर ‘अव्यापारिक श्रेणी’ बनाते हैं। इस सम्बन्ध में यह जान लेना भी जरूरी है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी की आमदनी का मुख्य स्त्रोत भू-राजस्व था, जिसके लिए कम्पनी भू-स्वामियों पर आश्रित थी। कम्पनी राज में कम्पनी ने जमींदारों को जमीन का मालिकाना हक देकर और राजस्व वसूली के सभी अनैतिक अधिकारों से लैस कर किसानों पर थोप दिया था। यह जमींदार वर्ग ही था जो अपने बाहुबल के दम पर कम्पनी के दलाल के रूप में रैयत पर अत्याचार कर लगान वसूलता था जिसका आधा हिस्सा इस सामन्त वर्ग को भी प्राप्त होता था। इस प्रकार कम्पनी सरकार ने अपनी जरूरतों के मुताबिक नये अधिकारों से लैस एक ऐसा सामन्ती वर्ग खड़ा किया, जो पहले से भी अधिक क्रूर और बर्बर था। यह दलाल सामन्त वर्ग ही भारत में अंग्रेजी राज का मुख्य आधार था।
शुक्ल जी अपने विश्लेषण में व्यापारी वर्ग द्वारा जमींदारों की तबाही का तो वर्णन करते हैं किन्तु इसी जमींदार वर्ग के सामन्ती पक्ष को उजागर नहीं करते। उन्होनें इस सामन्ती वर्ग के चरित्र का तनिक भी उल्लेख नहीं किया, जिसके कारण किसान निलाम हुए और अंग्रेज सरकार द्वारा बेदखल किये गये। शुक्ल जी अपने विश्लेषण में जमींदारों की तबाही को तो इंगित करते हैं पर जमींदारों द्वारा रैयत पर किये जाने वाले शोषण-उत्पीड़न की कहानी नहीं कहते। सच तो यह है कि कम्पनी संरक्षित व्यापारी वर्ग जितना जमींदारों को बेदखल कर रहे थे, उससे कई गुना अधिक और अन्याय पूर्ण ढंग से ये सामन्त वर्ग आसामियों को बेदखल कर रहा था।
वास्तविकता तो यह है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक व्यापारिक कम्पनी थी जिसने अपनी घृणित व्यापारवादी नीतियों से भारतीय व्यापार और उद्योग धंधों को चौपट कर दिया था। इतिहास में विदित है कि कम्पनी ने अपनी नाजायज, अव्यापारिक नीतियों के बल पर किस प्रकार भारतीय वस्त्र उद्योग और बुनकरों को उजाड़ दिया। भारत का बल पूर्वक विऔद्योगीकरण किया। अपने अनैतिक अत्याचारों के बल पर भारतीय शिल्प उद्योग को नष्ट कर व्यापारियों और कारीगरों को पूरी तरह से तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परिणामस्वरूप बेरोजगारी बढ़ी और कृषि पर बढ़ती निर्भरता के चलते भारत एक कृषि प्रधान देश बना दिया गया। इतिहासकार बिपिन चन्द्र के अनुसार- ‘‘ व्यापार का कोई क्षेत्र न था जहाँ भारतीय व्यापारी प्रभुत्वशाली स्थिति में हो। हर जगह वे निचली सीढ़ियों पर थे। यहाँ तक कि हिन्दी प्रदेश में गल्ले के निर्यात-व्यापार में भी, जहाँ हिन्दुस्तानी आढ़तियों की संख्या ज्यादा थी, रॉनी ब्रदर्स जैसी अंग्रेज व्यापारिक कम्पनियाँ प्रभावशाली थीं। उद्योग में ऐसा कोई क्षेत्र न था जहाँ भारतीय पूँजी का पूरा नियन्त्रण और स्वामित्व हो। यहाँ तक कि वस्त्र उद्योग में भी, जिसे भारतीय पूँजी का गढ़ माना जाता था, आंशिक पूँजी विदेशी थी, प्रबन्ध अधिकांशतः विदेशी था और तकनीक का अधिकांश जबरन आयात करना पड़ता था।’’28
भारत में राष्ट्रीय आंदोलन की शुरूआत इसी माँग के साथ हुई थी कि भारत के शिल्प, व्यापार और उद्योग के रास्ते से रोड़े हटाये जायें, उन्हे बढ़ने का मौका दिया जाय। दादा भाई नौरोजी, रमेशचन्द दत्त, बी.जी.जोशी और जस्टिस रानाडे, सभी राष्ट्रवादी नेताओं ने अंग्रेजी राज की आलोचना करते हुए बहुत परिश्रम से जमा किए गये तथ्यों और आकड़ों से यह साबित करके दिखाया कि अंग्रेज राज ने भारतीय व्यापार और उद्योग को न सिर्फ तबाह किया, बल्कि हर तरह से उसके विकास में रूकावटें खड़ी कीं, लेकिन आचार्य शुक्ल अंग्रेजी राज में किसानों, जमींदारों और व्यापारियों से सम्बन्धित अन्तर्विरोध को विश्लेषित करने में अपने एकांगी दृष्टिकोण का सहारा लेते रहे, जो उनके राष्ट्रीय आंदोलन सम्बन्धित दृष्टिकोण को उजागर करता है।
निष्कर्ष:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी प्रदेश में राष्ट्रीय आंदोलन के साहित्यिक मोर्चे पर सामने आये। उन्होंने साहित्य को लोक जीवन से जोड़ने की मांग कर साहित्य को जनसमस्याओं से जोड़कर देखा। उन्होनें अपना लेखन जिन प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में किया, वे राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्रीय परम्परा से सम्बन्धित थे। उन्होंने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के मूल में निहित आर्थिक कारणों को उजागर करते हुए राजनीतिक आंदोलनों की जरूरत को समझा। उन्होंने न केवल भारतीय जनता की आर्थिक स्थितियों को समझा बल्कि उसके लिए उत्तरदायी ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के चरित्र को भी उजागर किया। इस विवेचन में शुक्ल जी कृषक वर्गों के संगठन के प्रति तो सचेत दिखाई देते हैं किन्तु स्वाधीनता आंदोलन में मजदूरों की भूमिका को ठीक से रेखांकित नहीं करते। वे स्वाधीनता आंदोलन और उस दौर की राजनीतिक गतिविधियों को बहुत निकट से देख रहे थे। अपने साम्राज्यवाद विरोधी साहित्य लेखन में शुक्ल जी ने राष्ट्रीय चरित्र संबंधी प्रश्नों का विवेचन किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मानना था कि किसी भी राष्ट्रीय गौरव का महत्वपूर्ण आधार है इतिहास। बिना इतिहास के राष्ट्र का स्वरूप संभव नहीं और न उसकी पहचान। शुक्ल जी का सारा लेखन स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा और प्रभाव से जुड़ा हुआ है। उस समय में अंग्रेजों ने जब यह प्रचारित कर रखा था कि भारत एक असभ्य देश है, तो आचार्य शुक्ल ने यह महसूस किया कि भारतीयों में आत्म-गौरव का बोध जगाने के लिए अपनी परंपराओं के व्यवस्थित ज्ञान से परिचित होना अत्यंत आवश्यक है। इस साहित्यिक संघर्ष का उत्कर्ष ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ है। यह अत्यन्त रूचिकर है कि शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास के चरणबद्ध विकास को जिस तरह व्याख्यायित किया वह निश्चित रूप से विद्यार्थियों की जरूरतों को उन संदर्भों में देखकर लिखा जिन्हें राष्ट्रीय आंदोलन ने पेश किया था। कुल मिलाकर कहा जाये तो साहित्य के प्रति आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की अवधारणों के निर्माण में और उनकी आलोचना दृष्टि के विकास में राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका है।
संदर्भ-सूची
1. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र. भारत को क्या करना चाहिए? (अपूर्वानन्द द्वारा अनूदित) आलोचना, 1985, पृ. 3
2. वही, पृ.4
3. वही, पृ.4
4. वही, पृ.5
5. वही, पृ.6
6. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र. चिन्तामणि भाग-1. काशी: सरस्वती मन्दिर, 1953, पृ.74
7. वही,पृ.129
8. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र. हिन्दी साहित्य का इतिहास. वाराणसी: नागरी प्रचारणी सभा, 1984, पृ.515
9. वही, पृ.536
10. वही, पृ. 561
11. वही, पृ.562
12. चन्द्रशेखर शुक्ल, रामचन्द्र शुक्ल, पृ.79
13. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र. चिन्तामणि भाग-1. काशी : सरस्वती मन्दिर, 1953, पृ.188
14. वही, पृ.41-42
15. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र. हिन्दी साहित्य का इतिहास. वाराणसी: नागरी प्रचारणी सभा, 1984, पृ. 562
16. दस्तावेज-21-22, कुसुम चतुर्वेदी द्वारा अनुदित (नॉन कोऑपरेशन एण्ड नॉन मर्केण्टाइल क्लासेज?), पृ.8
17. वही, पृ.8
18. वही, पृ.8
19. वही, पृ.9
20. वही, पृ.10
21. राय: मेमॉयर्स, बम्बई, 1964, पृ.369
22. वही, पृ.370
23. दस्तावेज-21-22, कुसुम चतुर्वेदी द्वारा अनुदित (नॉन कोऑपरेशन एण्ड नॉन मर्केण्टाइल क्लासेज?), पृ.11
24. वही, पृ.11
25. वही, पृ.6
26. वही, पृ.6
27. वही, पृ.7
28. चन्द्र, बिपिन. भारतीय आर्थिक राष्ट्रवाद का अभ्युदय. दिल्ली: हिन्दी माध्यम कार्यालय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृ.84