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Literary Journal

कामेंग अर्धवार्षिक ई-पत्रिका/सहकर्मी समीक्षा जर्नल/जनवरी-जून,2024/खण्ड-1/अंक-1

संपादक - अंजु लता

शोधालेख

शरण कुमार लिम्बाले का उपन्यास सनातन : दलितों के इतिहास को सामने लाने की कोशिश

-डॉ. प्रीति प्रकाश

प्रखंड कल्याण पदाधिकारी

पिपरही शिवहर, बिहार

सारांश:

मूलतः मराठी भाषा में लिखित एवं पद्मजा घोरपड़े द्वारा हिंदी में अनुदित शरण कुमार का उपन्यास ‘सनातन’, उस बहुसंख्यक इतिहास को दर्ज करने की कोशिश है जो मुख्यधारा द्वारा बहिष्कृत रहा है। शायद ‘सनातन’ को सिर्फ उपन्यास कहना भी एक अधूरी बात कहने जैसा है क्योंकि कथ्य और शिल्प की सीमाओं का अतिक्रमण करता हुआ यह उपन्यास इतिहास, दर्शन, चिंतन और विमर्श को भी नए आयाम प्रदान करता है। हिंदी भाषा में बहुत ही रूढ़ अर्थ में इस्तेमाल होने वाले शब्द सनातन को इस उपन्यास के लेखन द्वारा शरण कुमार लिम्बाले ने एक नयी अर्थवत्ता प्रदान की है। इस देश में जातियाँ जितनी पुरातन है उतना ही पुरातन है उनके शोषण का इतिहास और वह इतिहास एक नयी रौशनी में इस उपन्यास में दर्ज है। दलित विचारधारा मराठी साहित्य में अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध और गज्झिन है। इतनी समृद्ध परंपरा का हिंदी में समावेश हिंदी में भी दलित विमर्श की दशा और दिशा को समझने हेतु आवश्यक है। प्रस्तुत आलेख द्वारा लेखक ने दलित विमर्श के बहिष्कृत इतिहास, दलितों के सामाजिक सांस्कृतिक जीवन, उनके आचार विचार और खान पान जैसी आदतों के निर्माण, उनकी सांस्कृतिक पहचान और उनके नायकत्व की खोज जैसे विभिन्न पहलूओं पर बात करने की कोशिश की है।

बीज शब्द:

जी. एस. धुर्वे, चिनुआ अचेबे, सनातन, दलित इतिहास का पुनर्लेखन, भीमा कोरेंगांव, स्तन- टैक्स, महार जाति, जाति और खाद्य आदतें, धर्म परिवर्तन, ब्राहमणवाद और हिंदुत्व, दलित नायकत्व

मूल विषय:

“Until the lions have their own historians, the history of the hunt will always glorify the hunter.”

“ जब तक शेरों के अपने इतिहासकार नहीं होंगे तब तक इतिहास में शिकारियों का ही गुणगान होगा”

           नाईजीरियन लेखक चिनुआ अचेबे की यह उक्ति अफ़्रीकी परिदृश्य की है लेकिन यह भारत के बहुसंख्यक पिछड़े लोगों पर भी उतनी ही सटीक बैठती है । मूलतः मराठी भाषा में लिखित एवं पद्मजा घोरपड़े द्वारा हिंदी में अनुदित शरण कुमार का उपन्यास ‘सनातन’, उस बहुसंख्यक इतिहास को दर्ज करने की कोशिश है जो एक लम्बे समय तक अँधेरे में रहा। उसके लेखन की कभी जरूरत भी नहीं महसूस की गयी क्योंकि जिन्हें लिखना था वो उतने सशक्त नहीं थे कि लिख सके और जो लोग इतिहास लिख रहे थे वो अपने हिसाब से लिख रहे थे। इस सम्बन्ध में शरण कुमार लिम्बाले अपने उपन्यास की भूमिका में लिखते हैं- “सभी धर्मों ने, प्रदेशों ने, भाषाओँ और संस्कृतियों ने दलितों को सहजीवन से ख़ास दूरी पर ही रखा। उनको अपवित्र माना। उनसे दूरी ऐसी बरती कि भेदभाव बन गयी। दलित अलग-थलग हो गए।” (1)

दलित यानि वो हिन्दू जो वर्ण परम्परा में किसी वर्ण में नहीं है, जो खुद को पंचम वर्ण मानता है। जिसका इतिहास सवर्णों द्वारा उनके शोषण का इतिहास है। म. ना. वानखेड़े कहते हैं- “दलित शब्द की परिभाषा में  केवल बौद्ध अथवा पिछड़े हुए ही नहीं, बल्कि जो भो शोषित, श्रमजीवी हैं वे सभी ‘दलित’ परिभाषा में सम्मिलित होते हैं।” (2)

नामदेव ढसाल लिखते हैं- “दलित यानी कि अनुसूचित जाति, जन जाति, बौद्ध, श्रमिक जनता, मजदूर, भूमिहीन खेत मजदूर, यायावर और आदिवासी हैं। (3) शरण कुमार लिम्बाले अपने लेख ‘दलित साहित्य : स्वरुप और प्रयोजन’ में दलित शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं- “दलित अर्थात केवल हरिजन और बौद्ध नहीं, बल्कि गाँव की सीमा से बाहर रहने वाली सभी अछूत जातियाँ, आदिवासी, भूमिहीन, खेत मजदूर, श्रमिक, दुखी जनता, बहिष्कृत जाति इन सभी का दलित शब्द की व्याख्या में समावेश होता है।” (4) शरण कुमार लिम्बाले का उपन्यास ‘सनातन’ वस्तुतः इस विस्तृत और समग्र परिभाषा के आधार पर ही दलितों के इतिहास को सामने लाने की कोशिश है। आमतौर पर इतिहास विजेताओं द्वारा लिखा जाता है लेकिन बहुसंख्यक दलित और दमित जाति ने तो ऐसी कोई उपलब्धि नहीं हासिल की, फिर उनके इतिहास में क्या लिखा जाएगा? इसका जवाब है कि उनका इतिहास वस्तुतः उनके शोषण और उत्पीडन का इतिहास होगा। यह उनके संघर्ष और उनके कोशिशों का इतिहास होगा। यह इतिहास होगा उस प्रक्रिया का जिसमे एक जाति ने दूसरी जाति को प्रताड़ित किया और लगातार पीछे की ओर धकेला। सनातन उपन्यास दलितों के इतिहास के विभिन्न पक्षों को सामने लाने की कोशिश है।

 मुख्यधारा के इतिहास का पुनर्लेखन: ‘सनातन’ उपन्यास का फलक बहुत विस्तृत है। पूरा उपन्यास पढ़ते समय हम पाते हैं कि इतिहास की कई धाराएँ, कई युग, कई जाति एवं प्रजाति और विस्तृत भौगोलिक सीमा उपन्यास को विस्तार देती है। यहाँ वह इतिहास है जिसमे भीमा कोरेगांव, 1857 की क्रांति, आदिवासी संघर्ष, मालाबार में दलितों का संघर्ष, फुले और अम्बेदकर के आन्दोलन, दलितों के साथ किया गया विश्वासघात सब कुछ एक नयी रौशनी में दर्ज है।

“ भीमा कोरेगांव के पास पेशवा की फौजें बड़े पैमाने पर थी। मराठा फौजों ने अंग्रेजी फ़ौज को चारों ओर से घेर दिया। भीमा नदी के उस पार पालकी में बैठे श्रीमंत पेशवा बाजीराव द्वितीय लड़ाई देख रहे थें। महार जाति के हाथ में शस्त्र देखकर वे बेचैन हुए। उन्हें यह अशुभ चिन्ह लगा। जिस पेशवाई ने महारों के कमर में झाडू लटका दिया और गले में मटकी वे महार आज वीरता का प्रदर्शन करते दिखाई दे रहे थें। इसकी उन्होनें कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी। उन्हें यह महापाप लग रहा था। वे मन में सोच रहे थें कि कुछ भी हो लेकिन ये महार हार जाये और उनके गले में यह मटकी लटकी रहनी चाहिए। .....पेशवाओं ने अपनी हार के दर्शन कर लिए थें। महारों ने धीरज से और जान की बाजी लगाकर पेशवाई को मिट्टी में मिला दिया था और सनातनी पुराणपंथी प्रभुत्व को हराया था। मराठा फ़ौज पुलगाव की दिशा में चली गयी। अपनी हारी हुयी सेना को लेकर पेशवा कर्नाटक में घटप्रभा नदी के परे भाग गये। अंग्रेजी फ़ौज उनका पीछा करती रही। महारों की जय की आवाजों से दिशाएँ गूँज उठीं। उनके लिए भीमा कोरेगांव वीरभूमि हो गयी थी।” (5)

“23 मार्च 1958 को झाँसी को घेरा गया। अंग्रेज फ़ौज रानी को हरा देगी इसके संकेत मिलने लगे। झलकारी बाई रानी का भेस पहनकर लड़ाई का नेतृत्व कर रही थी और रानी अपने दत्तक पुत्र को लेकर सही-सलामत निकल गयी। झलकारी बाई ने अपनी वीरता दाँव पर लगायी। मर्दानी झाँसी की रानी बनकर वे लडती रही।

झाँसी की रानी और झलकारीबाई दोनों महान स्त्रियाँ थीं। एक रानी थी, दूसरी सेविका! एक ब्राह्मण तो दूसरी निचली ‘कोरी’ जात की! दोनों वीर योद्धाएँ थी। रानी लक्ष्मीबाई ने कभी उनकी जाति नहीं देखी लेकिन इतिहास ने जाति को ही देखा।” (6)

अछूत स्त्रियों को वक्ष खुला रखकर भी छुटकारा न था। उन्हें अपने स्तनों के लिए कर देना पड़ता था। जिस स्त्री के स्तन का आकार बड़ा उसे ज्यादा कर देना पड़ता। जब कर वसूल करने वाले नांगेली के घर गये तब नांगेली ने अपने स्तन काटकर उन्हें दे दिए। अति रक्तस्राव से उनकी मृत्यु हुई। उसका पति चिरुक्ण्डन जब घर आया तब यह भयावह दृश्य देखकर वह भी पत्नी के साथ चिता पर चढ़ गया और उसने अपनी जीवन यात्रा भी समाप्त की। स्तनों पर कर के विरोध में आन्दोलन हुए। कर पद्धति समाप्त कर दी गयी लेकिन स्तनों को खुला रखने की रीत समाप्त न हो सकी। इसके लिए भी आन्दोलन छिड़े। मद्रास प्रेसिडेंसी के कमिश्नर ने राजा के पास शिकायत की। बदनामी की बात कही। इसका खुलासा माँगा। 26 जुलाई 1859 को त्रावणकोर के राजा ने महिलाओं को ऊपरी हिस्से पर वस्त्र पहनने की इजाज़त दी।” (7)

“रेजिमेंट के एक सिपाही को प्यास लगी थी। उसने पानी देने वाले सिपाही से पानी माँगा। सिपाही पानी देने लगा। पानी माँगने वाला सिपाही मंगल पांडे था और देने वाला मातादीन भंगी। मंगल पांडे के पास हवलदार ईश्वर प्रसाद आये और कहने लगे, “भंगी के हाथ का पानी मत पीओ! यह भंगी है।” मंगल पांडे ने पानी फेंक दिया। मातादीन गुस्सा हुआ और उसने मंगल पांडे को खरी- खरी सुनाई, ‘अहा रे ब्राहमण! मेरे हाथ का पानी पीने से भ्रष्ट होते हो और कारतूसों की चर्बी तो गाय- सूअर की होती है। वह चलती है? ऐसे कैसे ब्राह्मण तुम लोग!” मातादीन भंगी की बात सुनकर मंगल पाण्डे सकते में आ गया। उन्हें जवाब देते न बना।. .....

दूसरे दिन उन्होंने परेड ग्राउंड पर कारतूसो का आवरण खींचने से इनकार कर दिया।..... जेम्स ह्युसन परेड ग्राउंड पर आया। मंगल पांडे ने उनपर गोली चलायी। मेजर ह्युसन वहीं ढेर हो गया। मर गया।.....6 अप्रैल 1857 के दिन मंगल पांडे और 22 अप्रैल 1857 के दिन ईश्वर प्रसाद को फाँसी पर चढ़ाया गया। इसका फ़ौज के दिलोदिमाग पर बुरा असर हुआ। इस घटना का ज़िम्मेदार ठहराकर मातादीन को भी फाँसी दी गयी।” (8)

शरण कुमार लिम्बाले का उपन्यास ‘सनातन’ ऐसे गुमनाम लोगों की दास्ताँ हैं जिन्हें इतिहास ने कभी दर्ज करने की जरूरत ही नहीं समझी और अगर दर्ज भी किया तो बस नाम के लिए।

शरण कुमार लिम्बाले का उपन्यास सनातन पढ़ते समय एक ऐतिहासिक यात्रा पर जाने का भान होता है। एक ऐसी ऐतिहासिक यात्रा जो नूतन दृष्टि और गहरी समझ भी प्रदान करती है और जीवन को और उसकी परिस्थितियों को देखने का एक नया नजरिया प्रदान करती है। उपन्यास की भूमिका में वो लिखते हैं- “इतिहास और परंपरा ने दलितों की भारी दुर्गत की है, उन्हें धोखा दिया है।... इतिहास या ऐतिहासिक व्यक्तियों के प्रति अनादर का कोई कारण नहीं है। शिकायत इतनी ही है कि इस देश से दलितों ने और आदिवासियों ने भी बेहद प्रेम किया है। देश के लिए त्याग किया है। बलिदान दिया है। इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। यह उपन्यास इसकी ओर ध्यान दे रहा है।” (9)

दलितों के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन और उनके शोषण का इतिहास:  जी. एस. धुर्वे अपनी पुस्तक ‘भारत में जाति एवं प्रजाति’ में लिखते हैं- “मराठा देश में महार, जो अछूतों में से एक जाति है, सड़क पर इसलिए नहीं थूक सकती थी क्योंकि एक शुद्ध जातीय हिन्दू का पैर यदि उससे छू जाता है तो वह दूषित हो जाता है, और इससे बचने के लिए उसे एक मिट्टी का पात्र को अपने गले से लटकाकर रखना होता है जिससे वह थूक सके। इसके अलावा, उसे अपने साथ एक कांटेदार पेड़ की शाखा रखनी होती थी जिससे वह पाने पदचिन्हों को साफ़ कर सके और यदि कोई ब्रहंम वहां से गुजर रहा हो तो भूमि पर दंडवत करते हुए एक निश्चित दूरी पर लेट जाए, ताकि उसकी गंदी छाया उस पवित्र ब्राह्मण को अशुद्ध न करने पाए। (10)

सनातन उपन्यास में दलितों के इस जीवन को अभिव्यक्ति मिली है। उपन्यास की कहानी शुरू होती है ‘सोनई’ गाँव की महार बस्ती से। सोनई बहमनी राज्य का गाँव था। बहमनी राज्य पर मुसलमानों का शासन था। सोनई गाँव में भी हिन्दू संख्या में ज्यादा होने के बावजूद मुसलामानों के सामने डरे-डरे रहते थे। गाँव हिन्दू, मुसलमान और अछूत बस्तियों में बनता था। गाँव के बाहर बसी महार बस्ती लगभग कूड़ाखाना और हगनहट्टी में बसी थी। बस्ती के घर पहचान में आये इसलिए उन्हें अपने घर की छत पर जानवरों की हड्डियाँ ठूंसकर रखनी पड़ती थी।

‘सिद्नाक के घर की छत पर भैस के पैर की हड्डी ठूंसी थी, भीमनाक के घर पर फेफड़ा लटक रहा था। अम्बरनाक के घर पर गाय का पैर था तो भूतनाक के घर पर बैल का जबड़ा और धोंडामाय के घर पर बैल का सिंग।’ (11)। सोनई बस्ती के ये महार भी गले में मिट्टी का घड़ा लटकाते हैं और झुनझुने वाली लाठी रखते हैं। ताकि गाँव वालों को उनके आने के पहले ही पता चल जाए और वे सतर्क हो जाए। महार यहाँ पाड़ेवारी के काम में लगे हैं। ये काम थे गाँव के लोगों से किराया वसूलना, तयशुदा रकम वसूलना, उसके लिए उनके पीछे पड़ना, गाँव में कोई बड़ा आसामी आया तो उसके लिए सारा इंतजाम करना, उसके घोड़े के लिए घास, पानी का बंदोबस्त करना, घोड़े की मालिश करना, ढिंढोरा पीटना, खेत फसल खलियान की देखभाल करना, पहरेदारी करना, जंगल पेड़ों की रक्षा करना, जंगली जानवरों को मारना, घाट में पहरेदारी करना, गाँव में आने जाने वालों पर नजर रखना, अनजाने लोंगों पर नजर रखना, शक उभरने पर गाँव के मुखियां को इत्तिला देना, चोरो को ढूँढना, गाँव के रास्ते साफ़ करना, मुर्दा जानवरों को हटाना, मौत की खबर देना, मुर्दों को जलाने के लिए लकड़ियाँ काटना, गाँव की सेवा करना, ऊँची जात वालों के लिए लकड़ियों का इंतजाम करना.......... और इसके बदले मांगकर खाना। (12)

 इन अनगिनत काम का मेहनताना था – जूठन। ये काम महार नकार भी नहीं सकते थें। नकारने पर उन पर जुल्म किया जाता था। महार न कहे तो उनके बीवी बच्चों को काम करना पड़ता था। ऐसा दर्ज किया गया है कि मराठाओं और पेशवाओं के शासन के अधीन महारों एवं मांगो को दोपहर तीन बजे के बाद तथा प्रातः नौ बजे के पहले पुणे के द्वारों से अन्दर आने की अनुमति नहीं थी क्योंकि प्रातः नौ बजे और दोपहर तीन बजे के बीच में शरीर की छाया सबसे अधिक लम्बी हो जाती है जिसके किसी उच्च- जाति, विशेष तौर पर किसी ब्राहमण के शरीर पर पड़ जाने से वह अशुद्ध हो सकता है। (13)

आगे चलकर उपन्यास की कथा का विस्तार झोल रियासत, देवगढ़ और औपनिवेशिक राष्ट्रों तक होता है लेकिन महारों की दशा कहीं भी नहीं बदलती है। रामपुर के महाराज के यहाँ यज्ञ होता है। हजारों ब्राह्मणों को न्योता दिया जाता है और फिर उनका भोज होता है। ब्राह्मणों द्वारा भोजन के बाद बचे हुए जूठन पर अस्पृश्य लोटते हैं क्योंकि उनकी ऐसी धारणा है कि ऐसा करने से उनके शरीर पावन होंगे। (14)सनातन उपन्यास सदियों से दलितों पर हुए अन्याय और उनके शोषण का इतिहास है।

दलित, मांस भक्षण और हिंदुत्व का इतिहास: दलित समाज के लिए भोजन हमेशा से एक प्रमुख समस्या रही है। पीने के पानी से लेकर खाना पकाने के तेल तक दलित समाज को हमेशा से भोजन और पोषण के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी है। यही कारण है कि मरे हुए जानवरों का मांस उनके भोजन का एक प्रमुख हिस्सा रहा है। द ब्लूप्रिंट के एक आलेख में दलितों के भोजन प्रणाली पर एक आलेख में लिखा गया हैं- “ Dalit food is generally considered Tamasik because it comes from a supposed place of impurity and filth. Discarded pars of a dead animal like hooves, brain, and tail are a source of nutrition for some Dalit communities, but they are associated with unclean and unhygienic eating practices.”  (15)

दलितों के भोजन को तामसिक माना गया है क्योंकि ये अशुद्ध और गंदी जगहों से आते हैं। मरे हुए जानवरों के शरीर के बेकार हिस्से जैसे उनके खुर, दिमाग और पूँछ दलित समुदाय के लिए उनके पोषण का एक प्रमुख स्रोत रहे हैं। लेकिन उन्हें अशुद्ध और अस्वास्थ्यकर खाद्य आदतों से जोड़कर देखा जाता है।’

“Names were assigned to castes based on the food they ate, or more accurately, the food they were left with to eat. Mahars, in Maharashtra, were known as mrutaharis, or those who eat dead animals. Valmikis and Musaharis are still known in Bihar and Uttar Pradesh, for they ate rats and joothan (scraps of food on a plate, left for garbage or animals) respectively. The food items on one’s plate became indicative of the placement in the caste hierarchy – Brahmins at the top consume vegetarian food, non-beef eating non-vegetarians are somewhere in middle of the hierarchy and beef and pork eaters are at the absolute bottom. Upper castes did not want beef or pork, especially the parts of the meat like intestines and other digestive remnants, which came to Dalits and they developed these items to infuse taste and nutrition (Homegrown Staff 2018).” (16)

दलितों की खाद्य आदतें ऐसा होने का कारण है कि उनके पास पोषण के विकल्प बहुत कम थें। जबकि तथाकथित उच्च जाति के लोगों के पास विभिन्न दूध से बने सामान, विभिन्न तरह के अनाज, दालें, मसाले और सब्जियां आसानी से उपलब्ध हैं। क्या यह विडम्बना नहीं ही कि जब उत्तर प्रदेश के मुसेहर या महाराष्ट्र के महार अपने भोजन के लिए चूहे और गाय के मांस पर निर्भर थे तब मैथिल ब्राहमण और कनौजिया ब्राह्मण अपने उच्च कोटि के भोजन और पाचन क्षमता के लिए जाने जाते हैं। एक पुरानी कहावत है – “तीन कनौजियों को तेरह चूल्हों से कम की आवश्यकता नहीं होती।” (17)

सोनई की महार बस्ती में भी मरी हुयी गाय का आना उत्सव का कारण बनता है। गाय की चर्बी, उसकी जीभ, उसका मांस सब सोनई बस्ती के लिए किसी पकवान से कम नहीं। लेकिन गाय का मांस खाने के कारण उन्हें गाँव वालों की हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है। गाय जब तक दूध देती है तब तक तो बड़ी जात वालों के काम आती है जब वो मर जाती है तब दलितों के हिस्से में आती है। तिस पर आफत यह कि मरने के बाद गाय हिंदुत्व के हाथों में अस्त्र बन जाती है।

हरिशंकर परसाई के व्यंग ‘एक गो भक्त से भेंट’ की एक प्रसिद्ध उक्ति है –‘दूसरे देशों में गाय दूध के उपयोग के लिए होती है, हमारे यहां वह दंगा करने, आंदोलन करने के लिए होती है”। (18)

 सनातन उपन्यास में भी महार मरे जानवर उठाने का काम करते हैं। वे उसकी खाल को बेचते हैं और उसके मांस को खाते हैं। अर्जुन खताल की गाय मर जाती है तो महार उसे खींचकर महार बस्ती लाते हैं। उस दिन पूरे बस्ती में दावत होती है। लेकिन रात में गाँव वाले महारों पर गो-हत्या का आरोप लगाकर उनकी पिटाई करते हैं। “देवराव पटवारी बोला, ‘गाय पवित्र प्राणी है। उसके शरीर में तैतीस करोड़ देवता बसते हैं। गोमाता को मारते हो? उसका मांस खाते हो? तुम हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाते हो।” (19)उपन्यास के आखिर में भी जब भीमनाक का पोता कार्टर महारों को मृत गाय का मांस खाने से रोकता है और उसपर विष्टा फेंकता है, तो महारों से ज्यादा, गाँव वाले क्रोधित होते हैं। वो उसे मृत गाय पर विष्टा फेंकने के कारण जान से मार डालते हैं। हालाँकि कार्टर की हत्या के मूल में उसका ज्ञानी होना और धर्म के सुधार की कोशिश करना है लेकिन हिंदुत्व वादी ताकतें गाय की आड़ में ही उसकी हत्या करती है।

दलित समाज के बदलाव का इतिहास: सनातन उपन्यास को इस बात का श्रेय भी जाता है कि उसमें समाज के बदलाव का इतिहास भी दर्ज है। ये बदलाव समय के साथ हुए हैं। अंग्रेजों के आगमन ने दलितों के लिए सेना में भर्ती के रास्ते खोल दिए। पहली बार दलितों को यह महसूस हुआ कि वो सिर्फ झाडू नहीं उठा सकते बल्कि बन्दुक भी चला सकते हैं। कवि अनुज लुगुन अपनी कविता ‘भीमा कोरेंगाव: इतिहास’ में लिखते हैं-

“ताकतवर को हराया जा सकता है

और कमजोर भी ताकतवर हो सकता है

इतिहास ही बताता है यह” (20)

भीमा कोरेंगाव में उनकी जीत ने उनके इस विचार को और पुख्ता किया। धर्मान्तरण ने उनके सामने धर्म की बेड़ियों को तोड़ने का विकल्प रखा। यद्यपि पलायन भी दलितों के लिए दुर्भाग्य की तरह था लेकिन लम्बे समय के अंतराल में पलायन ने उन्हें जीवन जीने का नया रास्ता तो सूझा ही दिया है।

धर्म परिवर्तन का इतिहास: अंग्रेजों के भारत आगमन ने जाति व्यवस्था को बहुत नजदीक से प्रभावित किया। इसके चित्र सनातन उपन्यास में भी नजर आते हैं। एक तरफ तो उन्होंने महारों के हाथ में झाडू की जगह बन्दूक थमा दी तो वही नरसोपंत जैसे ब्राह्मण को फांसी की सजा देकर ब्राह्मण सत्ता को खतरे में डाला। अछूतों के लिए धर्मान्तरण की राह खोलकर भी उन्होंने जाति व्यवस्था को चुनौती दी। हालांकि इसके लिए उन्हें भीषण विरोध का सामना भी करना पड़ा।

 ‘सनातन’ उपन्यास में धर्म-परिवर्तन और उसके कारण नजर आते हैं। अम्बरनाक महार के दादा बादनाक ने धर्म परिवर्तन किया और वह चाँद अली बन गया। मुसलमानों के शासन में ऐसा करके उसकी हालत सुधरी। उसका पोता अकबर अली महारों के प्रति सद्भाव रखता। गाँव के हिन्दू मुसलमानों से डरते थें। भीमनाक की माँ की लाश को जब गाँव वालों ने अपने खेत से ले जाने से मना कर दिया तब अकबर अली ने उसे अपनी खेत में जगह दी।

उपन्यास में इसाई धर्म में धर्मान्तरण देवगढ़ के रतनाक महार और उसके परिवार ने किया। रतनाक ने अपने लड़के जतनाक की शादी में घी परोसा। यह सुनकर सनातनी लोग क्रोधित हो गए। ‘गुंडा लोग शादी के मंडप में घुस आये। उन्होंने परोसने वालों को लाठियों से पीटना शुरू किया। रसोई में मिट्टी मिला दी। पका हुआ सब मिट्टी में फेंका। भोजन करने बैठे लोगों को मार-मारकर उठाया। थालियाँ लात मारकर उडायी। जो कुछ बोला उन्हें नीचे गिरा- गिराकर लताड़ा। दूल्हे जतनाक को काफी पीटा। दुल्हन के भाई की हत्या की।............महार बस्ती का आक्रोश सुनकर फादर फ्रांसिस दौड़ा चला आया था। ‘प्लीज स्टॉप इट फॉर गॉड्स सेक!`वह बोले जा रहा था। वह बोले जा रहा था।.... फादर फ्रांसिस बिना डरे रतनाक महार के पास खड़ा था। उसको गले लगाया। रतनाक महार दहाड़ मारकर रोने लगा।” (21)

इस घटना के बाद रतनाक महार और उसके पूरे परिवार ने इसाई धर्म को अपना लिया। उन्हें चर्च का सहारा था इसलिए कोई कुछ न कर सका। स्पष्ट है कि धर्मान्तरण, दलित जातियों द्वारा अपनी हालत में सुधार करने के लिए किया गया। इसका कुछ फायदा उन्हें जरूर मिला। लेकिन धर्मान्तर के बाद भी महार, महार ही रहे। सिद्नाक ने बप्तिस्मा कराकर इसाई धर्म अपना लिया और उसे नया नाम मिला फिलिप। लेकिन उसके बेटे वॉरन की शादी में बहुत परेशानी आती है। उच्च जाति के ख्रिश्चन निम्न जाति के ख्रिश्चन को लड़कियां देते नहीं थे। वॉरन कहता हैं- ‘महार होने पर भी धमकाया जाना! ख्रिश्चन होने पर भी वही! मुसलमान होने पर भी वही।’ (22)

ब्राह्मणवाद की पहचान: भारत में हर जगह जातियों के बीच सामाजिक प्रधानता की निश्चित वरीयता मौजूद है, जिसके अनुक्रम में ब्राह्मण शीर्ष पर है। (23) ‘सनातन’ उपन्यास में भी वह शीर्ष पर ही है और शीर्ष पर बने रहने के लिए तमाम जोड़ घटाव करता है। अपनी श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए वह नाना प्रपंच रचता है। उपन्यास का एक ब्राह्मण पात्र उमाशंकर कहता है कि उसे हिन्दू धर्मग्रन्थ पढ़ते हुए अपार आनंद होता है क्योंकि इनमे ब्राह्मणों की श्रेष्ठता वर्णित की गयी है। मुख्य ब्राह्मण पात्र गोविन्द भट्ट और उसके पुत्र मोरोपन्त एवं नरसोपंत ब्राह्मणवाद की ध्वजा लहराने में कोई कसर नहीं रखना चाहते हैं। गोविन्द भट्ट कहता है कि हिन्दू धर्म मंदिर, धर्मस्थल की जगह ब्राहमण की जिह्वा पर टिका है। ब्राहमण यहाँ के भू देव हैं, धर्म को बचाने के लिए यदि भगवान् अवतार नहीं ले रहे तो फिर ब्राह्मण को ही इसका बीड़ा उठाना चाहिए। उसे दुष्टों का संहार करना चाहिए। आगे जाकर उसका पुत्र नरसोपंत फादर एडमंड की हत्या कर देता है जबकि वह उसकी बुद्धि और स्मरणशक्ति से प्रभावित हुआ है। लेकिन उसका भय कि फादर हिन्दू धर्म को और फिर ब्राह्मण सत्ता को खतरे में डाल देगा उसे ऐसा करने को मजबूर करता है।

नरसोपंत के बाद उसका भाई मोरोपन्त इस दायित्व को संभालता है। वह मोरोपन्त के पुत्र वेदांत को पिता के समान प्रेम भी देता है और ब्राह्मणवाद की घुट्टी भी पिलाता है। वह वेदांत को समझाता है कि हिदुत्व की भावना को तेज़ बनाना होगा तभी ब्राह्मणों का कल्याण संभव है। एक हाथ बहुजनों के कंधे पर और दूसरा पिछड़ी जातियों के कंधे पर रखना होगा। दलित, मुसलमान, ख्रिश्चन जैसे अल्पसंख्यकों पर ध्यान न देकर बहुसंख्यकों की भावना को छूना होगा। “धर्म को तलवार की तरह इस्तेमाल करना सीखना चाहिए।... फिर एक बार प्रभु रामचंद्र को गद्दी पर बिठाना होगा।’ इतना कहकर मोरोपन्त ने वेदांत की पीठ थपथपाई।” (24)

उपन्यास के आखिरी पन्नों पर वेदांत के नेतृत्व में हिन्दू वाहिनी के गठन और उसके द्वारा धर्मान्तरण कर रहे लोगो को धमकाने का दृश्य है। हिन्दू वाहिनी ‘कार्टर’ की हत्या कर देती है क्योंकि उसने मृत गाय पर विष्टा फेंक कर महारो को उसे खाने से रोका था।

उपन्यास में ब्राह्मणों के जीवन में होने वाले परिवर्तन भी दर्ज हैं। मराठा उथल-पुथल के दौरान और उसके बाद ब्राह्मण बड़ी संख्या में हथियारों के पेशे में प्रवेश कर गए थे। (25)

दलित, स्त्री, आदिवासी विमर्श:  सनातन उपन्यास में दलित विमर्श अपने विस्तार के साथ दर्ज है। यहाँ स्त्रियाँ, आदिवासी और अस्पृश्य सभी अपना विद्रोह दर्ज करते हैं। पार्वती, प्रमिला, मर्गी, ललिता, सरस्वती जैसे तमाम स्त्री पात्र बुद्धिजीवी और विद्रोही हैं। सरस्वती अपने पुत्र वेदान्त को मानवता का सन्देश देती है- “यह देख मेरा मुंडा हुआ सिर! मेरा सफ़ेद माथा... खाली गर्दन... दिख रहा है तुझे? मैं मनुष्य हूँ.... लेकिन मुझे मनहूस ठहराया गया.. वे चल बसे... मैंने मौत की यातनाएं झेली है। तू मनुष्य बन।”(26)

पाटिल के आदमी मर्गी के साथ गलत करते हैं। लेकिन वह डरती नहीं है, विरोध करती है। “... आने दे पाटिल को.... मैं उससे थोड़े ही डरती हूँ? कह दो उसे कि आ जाए वह। मैं खुद नंगी होकर उसके सामने खड़ी रहूंगी। देखने दे उसे मेरी गांड। उसकी माँ की गांड भी तो ऐसी हो होगी न? समझने दे उसे कहाँ से जन्मा वह।” (27)

  तापी नदी के किनारे के बांसवन के आदिवासी अंग्रेजों का विरोध करना चाहते हैं। उनकी जात पंचायत बैठती है। आदिवासी अपने गुस्से का इजहार करते हैं- “डॉक्टर घर में घुसता है। औरतों को जांचता है। फादर आता है.... ‘प्रार्थना करो’ कहता है.... मास्टर आता है.... स्कूल चलो बोलता है..... जमींदार के लोग आते हैं...लगान दो कहते हैं। ठेकेदार के लोग आते हैं ‘काम पर चलो कहते हैं। पुलिस आती है ‘डाका तुम्ही ने डाला कहती है.... किस किस को जवाब दें? हमें यह दखलंदाजी नहीं चाहिए। (28) आगे चलकर रामपुर के आदिवासी विद्रोह कर देते हैं। तीन दिन तक वो रामपुर पर राज करते हैं और फिर खुद लौट जाते हैं। लेकिन अंग्रेजों और भू-पतियों की मिलीभगत के कारण उनका शोषण लगातार होता रहता है।

दलित नायकत्व की स्थिति:  मराठी लेखक बाबूराव गायकवाड़ लिखते हैं- “देश के लिए लड़ने वाले सभी जाति धर्म के लोग थे पर निचले स्तर वाला अछूत मनुष्य वहां कभी नायक नहीं हुआ।” (29)अपने एक साक्षात्कार में शरण कुमार लिम्बाले कहते हैं कि रामायण में हमारा नायक ‘शम्बूक’ था जिसकी हत्या हो गयी। मुख्यधारा के साहित्य में दलित नायक का केन्द्रीय किरदार के रूप में आना अभी भी दूर की कौड़ी है। सनातन उपन्यास में भी कई दलित किरदार हैं जो नायकत्व के गुण से परिपूर्ण है लेकिन उनकी जाति उनके जीवन के त्रासद अंत का कारण बनती है। महार बस्ती की पार्वती विलक्षण किस्सागो है। वो कहानियां सुनाती है, महारों के जन्म की कहानी, उनकी बुरी स्थिति की कहानी, अमृतनाक महार की कहानी, सांस्कृतिक और चारित्रिक रूप से वह बहुत समृद्ध है लेकिन उसका अंत होता है बुर्ज बाँधने के पूर्व दी जाने वाली बलि के कारण। माणिक महार भी बहुत उज्जवल चरित्र का है, उसे रास्ते याद रहते हैं, वह परिश्रमी है और अंग्रेजों और हिन्दुओ दोनों के लिए पथ प्रदर्शन का काम करता है। लेकिन उसकी हत्या अंग्रेज इसलिए कर देते हैं ताकि वो बांस वैन के आदिवासियों को उनका पता मत दे दे। अगर अंग्रेज उसे न मारते तो हिन्दू राव पाटिल उसे मार देता क्योंकि उसे शक हो गया कि उसने उसकी बहु के साथ कुछ गलत किया है। भीमनाक सिद्नाक भी विद्रोही हैं। वो अपने पाड़ेवारी के काम को लात मारकर सेना की नौकरी करते हैं। लेकिन जाति के कारण वो भी कभी उत्थान को प्राप्त नहीं कर पाते। आदिवासी चेनन्या अपने गाँव का सरपंच है, वो फैसले सुनाता है, और न्याय करता है। लेकिन उसकी जमीन हडपने के लिए हिंदूराव पाटिल उसे जान से मार देता है। भीमनाक का पोता कार्टर भी संभावनाओं से भरा हुआ है। अच्छी अंग्रेजी बोलता है, उसके ह्रदय में करुणा है और वह तर्क भी करता है। लेकिन उसकी हत्या भी हिन्दू वाहिनी वाले कर देते हैं। ऐसे कई गुमनाम नायकों को लेकर सनातन उपन्यास एक बृहद संसार रचता है। एक ऐसा संसार जो जितना कहानी है उतना ही इतिहास, जिसमे चिंतन और दर्शन दोनों है, जिसमे शोषण और उसका विद्रोह दोनों शामिल है।

निष्कर्ष:

सनातन उपन्यास में अतीत हैं और वर्तमान हैं, यहाँ कहानी है और हकीकत है, यहाँ शोषक हैं और शोषित हैं, यहाँ इतिहास है और है इतिहास की कहानी। यहाँ चिंतन और दर्शन है और है एक नयी दृष्टि। अंग्रेजी के लेखक जॉर्ज ओरवेल लिखते हैं- “The most effective way to destroy people is to deny and obliterate their own understanding of their history.” “लोगों को ख़त्म करने का सबसे प्रभावी तरीका होता है उनकी खुद के इतिहास को लेकर बनी हुयी समझ को नकार देना और मिटा देना।” शरण कुमार लिम्बाले का उपन्यास ‘सनातन’ इस नकारे और मिटाए गए इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश है और लेखक इस कोशिश में सफल भी होते है ।

संदर्भ-सूची

1.         लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020

2.         म. ना. वानखेड़े., दलितों का विद्रोही वांग्मय, पृष्ठ 73

3.         नामदेव ढसाल, दलित पंथर का जाहीरनामा

4.         लोमानी, रमेश मनोहर. हिंदी की दलित आत्मकथाओं में अभिव्यक्त सामाजिक एवं सांस्कृतिक विवेचन, मैसूर विश्वविद्यालय

5.         लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 116-117

6.         लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 154

7.         लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 163

8.         लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 152

9.         लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020

10.       जी. एस. घुर्वे, जाति व्यवस्था की विशेषताएं, भारत में जाति एवं प्रजाति

11.       लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 13

12.       लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 19

13.       Russel, ।, pp72-3

14.       लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ-170

15.       https://thebluepr।nt.news/commentary/2021/09/a-cul।nary-reclamat।on-of-dal।t-surv।val

16.       https://mpp.nls.ac.।n/blog/d।gest।ng-caste-graded-।nequal।ty-।n-food-hab।ts/

17.       R।sley, 2 Pg 159

18.       हरिशंकर परसाई, एक गोभक्त से भेंट, परसाई ग्रंथावली

19.       लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 34

20.       अनुज लुगून, पत्थलगड़ी, पृष्ठ 113

21.       लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020

22.       पृष्ठ 84

23.       लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 126

24.       जी. एस. घुर्वे, भारत में जाति एवं प्रजाति, पृष्ठ 4

25.       शरण कुमार लिम्बाले, सनातन, पृष्ठ 185

26.       जी. एस. घुर्वे., भारत में जाति एवं प्रजाति, पृष्ठ 10

27.       लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 186

28.       लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 175

29.       लिम्बाले, शरण कुमार.(भूमिका). सनातन,नई दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 132

30.       बाबूराम गायकवाड, दृष्टि, पृष्ठ 681

 

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