सहकर्मी समीक्षा जर्नल
Peer reviewed Journal
ISSN : 3048-9040 (Online)
साहित्यिक पत्रिका
Literary Journal
कामेंग अर्धवार्षिक ई-पत्रिका/सहकर्मी समीक्षा जर्नल/जुलाई - दिसंबर,2024/खण्ड-1/अंक-1
Received: 10 Apr, 2025 | Accepted: 10 Apr, 2025 | Published online: 11 Apr, 2025 | Page No: 1 | URL: 1
मानव समाज ने अपने भीतर तमाम विविधताओं को समाहित किया है। समाज के इस ताने-बाने में कई ऐसे वर्ग दिखाई देते हैं, जिनका विकास मानव समाज के विकास के बरक्स अवरुद्ध दिखाई देता है। इन्हीं वर्गों में विकलांग वर्ग समाज के सबसे अंतिम पायदान पर नजर आता है। विकलांगता मानव जीवन की एक अपरिहार्य सच्चाई है। जब कोई व्यक्ति जन्म से अथवा जन्म के बाद किन्हीं कारणों के तरह शारीरिक, मानसिक अथवा स्तर पर आंशिक अथवा पूर्ण रूप से किसी कार्य को संपादित करने में समर्थ नहीं होता तब ऐसी स्थिति विकलांगता कहलाती है। समाज विकलांगजनों के प्रति आरंभ से ही नकारात्मक रहा है। सदियों के अन्याय एवं अनवरत शोषण के बाद कुछ हद तक आधुनिककाल में और व्यापक स्तर पर उत्तर-आधुनिक युग में इनकी पीड़ा को अनेक रूपों में वाणी मिली और इनसे जुड़े जरूरी सवालों ने विमर्श के गलियारे में कुछ जगह हाँसिल की। उपेक्षित व वंचित समाज को साहित्य ने संवेदना की भूमि प्रदान कर उनकी वेदना को हमेशा से समझने का प्रयास किया है। विकलांगों की दृष्टि से यदि हिंदी साहित्य पर गौर करें तो बहुत कम रचनाकार इस तरफ रचनारत डिकाही पड़ते हैं। इस शोध-आलेख का उद्देश्य है हिंदी कहानियों में अभिव्यक्त विकलांगों के मनोविज्ञान को समझना, समाज की मानसिकता का विकलांगों के मनोविज्ञान पर पड़ने वाले प्रभावों का विवेचन करना।
उत्तर-आधुनिकता, ज्ञानोदय, आधुनिक, विकलांगता, मनोविश्लेषणवाद, मार्क्सवाद, शोषण और मनोविज्ञान।
ज्ञानोदय के उपरांत आधुनिक चिंतन को जिन तीन विचारधाराओं ने प्रमुख रूप से प्रभावित किया वे हैं मार्क्सवाद, विकासवाद और मनोविश्लेषणवाद। मनुष्य के मन का अध्ययन मनोविज्ञान और मनोविश्लेषणवाद के अंतर्गत किया गया है। इस शाखा ने मानव जीवन की समस्याओं को समझने के लिए नवीन माध्यमों एवं सिद्धांतों का सूत्रपात किया। इस संदर्भ में डॉ. देवराज उपाध्याय का कथन है कि “बीसवीं शताब्दी के विज्ञान तथा यथार्थवाद ने मनुष्य के स्वरूप को समझने के लिए दो साधन बतलाए हैं। एक तो कहता है कि मनुष्य के अंदर की ओर बाहर से झाँको। डार्विन और मार्क्स यही कहते हैं। दूसरे का कहना है कि मनुष्य को समझना चाहते हो तो उसके भीतर से बाहरी दुनिया की ओर देखो। यह फ्रायड तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों का कथन है। अन्य मनोवैज्ञानिकों में निश्चय ही मैं उन आचरणवादियों की बातें नहीं करता जो मनुष्य की बाहरी क्रियाओं को ही मनोविज्ञान का विषय मानते हैं। दोनों विचारधाराओं में से किसी ने भी दूसरे पक्ष को सर्वथा अस्वीकृत ही कर दिया हो, यह बात नहीं। हाँ प्रधानता का अंतर अवश्य है। चील आकाश में मडराती रहती है पर उसकी दृष्टि रहती है पृथ्वी पर ही। यही हालत हमारे आधुनिक मनोवैज्ञानिक चकोर, रहता है जमीन पर ही, पर उसकी टकटकी बंधी रहती है आकाश में उगे चाँद की ओर। यही हमारे मार्क्सवादी विचार हैं”[1] मनोवैज्ञानिकों के विभिन्न सिद्धांतों का प्रभाव साहित्य लेखन के क्षेत्र पर गहराई से पड़ा। परिणामस्वरूप मनुष्य के आंतरिक मन की जटिल परतों को समझते एवं खंगालते हुए विपुल साहित्य रचा गया।
हिंदी साहित्य की कहानियों ने अन्य शोषित एवं वंचित वर्गों की अपेक्षा विकलांग वर्ग की समस्याओं को कम ही उकेरा है, लेकिन फिर भी कई कहानियाँ ऐसी लिखी गई हैं जिनमें उनके सामाजिक एवं आर्थिक पक्ष के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक पक्ष की झलक दिखाई देती है। यह सच है कि विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक बाह्य कारण मनुष्य के मन को प्रभावित करते हैं और उसके बाद उनके कारण मन पर पड़ने वाले प्रभाव प्रतिक्रिया स्वरूप समाज में बाह्य रूप में दिखाई देते हैं। विकलांगों के मन का अध्ययन इस कारण भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि वे समाज में अनवरत शोषण प्रक्रिया से गुजरते हैं, जिनका गहरा असर उनके मन पर पड़ता है। आज विभिन्न अस्मितामूलक विमर्शों को समझने के लिए युंग और एडलर जैसे मनोवैज्ञानिकों के सिद्धांतों को समझना भी जरूरी है। समाज में व्यक्ति की अस्मिता और उसकी अधिकार भावना के संदर्भ में एडलर अपनी पुस्तक ‘द प्रेक्टिस एंड थियरी ऑफ इंडिव्युजल साइकोलॉजी’ में यह विचार रखते हैं कि “हीनता की भावना ही अतिवादी स्थिति में हीनताग्रंथि (इनफिरियारिटी कॉम्पलेक्स) का रूप धारण करती है। अपने को प्रत्येक से श्रेष्ठ समझने की भावना अतिचार श्रेष्ठता ग्रंथि (सुपीरिआरिटी कॉम्पलेक्स) को जन्म देता है। हीनताग्रंथि अथवा श्रेष्ठताग्रंथि विरोधी दृष्टिगत होने पर भी विरोधी नहीं होतीं वे एक दूसरे की पूरक होती हैं। एक ही व्यक्ति में ये दोनों ग्रंथियाँ पाई जाती हैं। हीनता की ग्रंथि को व्यक्ति श्रेष्ठता भावना में बदलना चाहता है”[2] आगे हिंदी कहानियों में विकलांगता के मनोविज्ञान पर विस्तृत विश्लेषण किया गया है।
व्यक्ति के मन पर अपने आसपास के परिवेश का गहरा असर पड़ता है चूंकि विकलांगों के लिए चाहे घर के अंदर का परिवेश हो या उसके बाहर के समाज का प्रायः प्रतिकूल एवं असमानता से भरा होता है। निरंतर उन्हें उपेक्षित कर किसी-न-किसी रूप में नकारा जाता है यह उपेक्षा उनके मनोविज्ञान को हीनताबोध के भाव से भर देती है। सिम्मी हर्षिता की कहानी ‘इलायची के पौधे’ में दृष्टिबाधित दीपू के व्यथित मन का जीवंत वर्णन मिलता है जहां अपने मित्रों द्वारा अपमान सहकर वह मानसिक रूप से व्याकुल हो जाता है और आत्ममंथन करता है “अब उसके दोस्त उसे खेलने में न कहने लगे हैं। कोई भी उसे अपने खेल का साथी बनाने को तैयार नहीं हो रहा। वे कहते हैं, "दीपू! अब तुझसे ठीक खेला नहीं जाता।
"हूँ। दूसरे खेलें मेरे कंचों से और मैं बुद्ध की तरह उन्हें देखूँ। जैसे कि मुझे खेलना न आता हो?" वह यह सारा अपमान, असमर्थता, अयोग्यता और पराजय कैसे सहे? "ठीक है, मैं देखूँगा भी नहीं" वह बुदबुदाता है। उसका मन उसे चिढ़ाता हुआ उससे कहता है, "दीपू ! तुझे अच्छा दिखाई भी कहाँ देता है, जो तू देखे भी? ठीक है, जा चारपाई पर चुपचाप लेट जा। जा। जा न !"”[3] इसी प्रकार परिवारिक भेदभाव एवं तिरस्कार से जूझते हुए विकलांग मानसिक रूप से उस स्थिति में पहुँच जाते हैं जहां उनको अपना जीवन निरर्थक जान पड़ता है। उपहार कहानी की विजया का मन इसी निरर्थकताबोध से ग्रस्त है जहां वह कहती है... “जब जया दीदी के लिए लड़का खोजा जा रहा था, तब बाबूजी ने दिन रात एक कर दिया था। पर विजया तो फ़ालतू, रद्दी, निर्जीव व बेकार वस्तु है उसकी किसी को क्यूँ परवाह हो। ओह हो! यह अँधापन! जीवन के लिए कितना बड़ा अभिशाप है। मैं तो बस एक पत्थर की मूरत हूँ। यह कोई भी नहीं जानेगा कि यहाँ भी दिल धड़कता है।”[4]
पारिवारिक एवं सामाजिक रूप से बहिष्कृत होकर कई बार विकलांग व्यक्ति इतना टूट जाता है कि उसे कोई अपना दिखाई नहीं देता है। वह बेबसी और अकेलेपन का शिकार हो जाता है। यह स्थिति उसके मन पर बहुत से विकृत प्रभाव डालती है। जया जदवानी की कहानी ‘साक्षी’ में बीमार और विकलांग स्त्री पात्र परिवार के भीतर रहकर भी अकेलेपन से जूझती, टूटती और बिखरती दिखाई पड़ती है। “और अब बल्ब की पीली रोशनी में मैं अकेली खाट पर पड़ी हूँ। अकेली और बेबस अपने अँधेरों के साथ...। ये क्या लिख दिया किस्मत में मेरी भगवान ने यह घुटन, जलन, गुस्सा, नफरत। इस शरीर के अन्दर सिर्फ अंधेरा है। अन्दर भी बाहर भी। मैंने अपने जिस्म को देखा-काला, मोटा, सख्त.... मांस का लोथड़ा। दस साल में फैलकर तिगुना हो गया हैं इसका क्या करूँ मैं?”[5] गिरीराजशरण अग्रवाल की कहानी ‘पर कटा परिंदा’ में एक सड़क दुर्घटना के चलते दोनों पैर गँवाने वाला लड़का विभू मानसिक रूप से उद्विग्न हो जाता है। उसे अपना अस्तित्व संकटग्रस्त लागने लगता है। आस-पड़ोस के लोगों द्वारा मिलने वाली नफरत और हिकारत से उसका मन अकेलेपन की गहरी पीड़ा से भर जाता है। लेखक लिखते हैं कि “अब उसने कुछ ऐसा अनुभव किया कि उसकी दोनों टाँगे कट चुकी हैं। केवल धड़ शेष है जिसमें सांस तो है पर आस नहीं है, जिसमें सोचने की शक्ति तो है करने की शक्ति समाप्त हो गई है...और आज अपने आसपास फैले अकेलेपन को शायद उसने पहली बार इतनी गहराई से महसूस किया।”[6]
विकलांगों को समाज में जिस दया और बेचारगी के भाग से देखा जाता है कई बार ये भाव विकलांगों के भीतर हीनताग्रंथि बनकर उभरते हैं, तो कई बार प्रतिक्रिया स्वरूप खीझ और बेचैनी बनकर सामने आते हैं। यह अवस्था व्यक्ति को सहज और सामान्य नहीं रहने देती और व्यक्ति मनोवैज्ञानिक रूप से अस्थिर और तनावग्रस्त हो जाता है। ‘आधा हाथ पूरा जीवन’ कहानी की विकलांग पात्र मारिया अपने पापा और उनके दोस्तों द्वारा खुद पर उडेली जा रही सहानुभूति को सहन नहीं कर पाती और वह उनके प्रति द्वेष भावना से भर जाती है और मन ही मन में आत्ममंथन करते हुए सोचती है कि “मुझे पापा की उपस्थिती से उलझन होती है। उनसे भी...उनके दोस्तों से भी। इन सभी की आँखों में मेरे प्रति जो सहानुभूति और दया का भाव है उससे मुझे घृणा है। मैं ये सहन नहीं कर सकती कि लोग मुझपर तरस खाएं। चाहे वो पापा ही क्यों? न हों...”[7] यही उलझन और बेचैनी कई मौकों पर उग्र होकर उन्हें हिंसक और अपराधी भी बना देती है। मनोविज्ञान के अनुसार कई दफा मनुष्य कि दमित इच्छाएँ कुंठा बनकर समाज में अपना विकृत प्रभाव डालती हैं। लगातार समाज की दुत्कार और उपहास को झेलते-झेलते ‘इलायची के पौधे’ कहानी का दीपू हिंसक हो जाता है। परिवार और समाज द्वारा उसकी बेचैनी को न समझ पाने की खीझ उसे उग्र बना देती है। “उसकी शांत उदासी, चुप्पी, समझ और विचारशीलता में से एकाएक अशांति, खोज, दाह, द्वेष, असहायता और दिशाहीन क्रोध उभर आता है। सबकी आँखें ठीक हैं तो मेरी क्यों नहीं?" उसके मन में चक्रवात उठने लगता है और घर में उसकी उठा-पटक मच जाती है। वह दोस्तों के साथ खेलते या बातचीत करते हुए लड़ाई और मार-कुटाई करने लगता है। मार-पीट में जीत-जीतकर भी उसे लगता है जैसे कि उसके साथी उससे आगे निकल गए हैं। वास्तव में हार तो वह ही रहा है।”[8]
जीवन एक जटिल संरचना है। इस जटिल संरचना में मनुष्य समाज और परिवार के भीतर रहते हुए विभिन्न कारणों से यातनाओं का शिकार होता है। ये यातनाएं मनुष्य को मानसिक रूप से बहुत गहराई तक प्रभावित करती हैं जिससे मनुष्य कई बार अवसाद की स्थिति में पहुँच जाता है। यह कहना अतियुक्ति न होगा कि समाज में विकलांग वर्ग इन यातनाओं को सर्वाधिक रूप से झेलता रहा है जिसका प्रतिकूल प्रभाव उनके मन पर पड़ता है। अपने परिवार को हर समस्याओं से बचाने वाले और उसे असीम प्रेम करने वाले प्रो. कुंदन ‘कमाई’ नामक कहानी में गहरी निराशा और मानसिक संताप के शिकार बन जाते हैं क्योंकि उनकी दृष्टिहीनता ही उन्हें अपनों के बीच उपेक्षित और अकेला बना देती है “प्रोफेसर साहब को सारी बातें ऐसे याद आ रही थी जैसे ढलान से पानी बहता है। मर्म को विदीर्ण कर देने वाली अनुभूति उनके भाव तंत्र पर प्रहार करती। जैसे अंधड़ में सब उड़ जाता है वैसे ही सयत्न संजोयी गयी जिजीविषा सूखे पत्ते की तरह उड़ने लगती। लगता कि कलेजा ही बाहर निकल पड़ेगा। जीवन में कभी प्रलाप न करने वाले प्रोफेसर कुंदन सबसे छिप-छिपकर घंटों रोते। उनके भीतर जैसे सन्नाटे शोर करते और भावनाएँ सिर पटकतीं, अतीत और वर्तमान का तीखा विरोध उनकी वेदना का विस्तार करता। वे बेसुध हो कभी बिस्तर पर पड़े रहते तो कभी मन बहलाव के लिए कुछ पढ़ने की कोशिश करते।”[9] विकलांगता के प्रति समाज का नकारात्मक रवैया विकलांगों के लिए स्वयं नकारात्मक स्थिति पैदा कर देता है। वे अपनी अक्षमता को अपने लिए कमजोरी और दुर्भाग्य मानकर मानसिक यंत्रणा और हताशा में डूब जाते हैं। ‘दो दुखों का एक सुख’ कहानी में यही स्थिति दिखाई पड़ती है जहां दोनों विकलांग पात्र अपने जीवन को कोसते हुए गहरी मानसिक पीड़ा में दिखाई देते हैं। “करमिया की आँखों में कुछ पानी-सा छलछला आया, "हरे, राम जी! इन गलित अंगों को बेर-बेर देखकर कलेजा कोचने को ही दे रखी हैं ये आँखें तूने मुझे? न होती ससुरी चमड़लोथ की जोड़ी, तो अपना कोढ़ अपनी ही आँखों से देखने का संताप तो न भोगना पड़ता।" उधर सड़क पार की सीढ़ी पर बैठा सूरदास भी मन-ही-मन कुढ़ रहा था कि अंधेपन से तो कोढ़ भला!”[10] विकलांग स्त्रियों के लिए घर और उसके बाहर का परिवेश उनकी सुरक्षा की दृष्टि से अधिक चुनौतीपूर्ण होता है जो उनकी मानसिक अवस्था पर तरह-तरह से प्रतिकूल प्रभाव डालता है। पारिवारिक भेदभाव, लोगों के ताने, घरेलू हिंसा, यौन शोषण एवं बलात्कार जैसी घटनाओं से ये लड़कियां अवसाद की स्थिति तक पहुँच जाती हैं। ‘मौन का दर्द’ कहानी में मुकबधिर लड़की दमयंती अपने भाई द्वारा बलात्कार किए जाने के बाद मानसिक रूप से टूटकर अवसादग्रस्त हो जाती है। “अथाह पीड़ा के गूंगे सागर में निरुपाय गोते खाती रो-रोकर बेहाल वो पूर्ण निःसहाय थी। वह अचानक उठी, उसने अपने को पुनः नहलाया। इस नहलाने और पहले वाले नहाने में जमीन आसमान का अंतर था। पहले वाले नहाने में हर बूंद के साथ उसकी देह पर एक सपना बनाता था जल की शीतलता की अनुभूति में अभिलाषाओं के फूल खिलते थे। अब के नहलाने में सारे फूल मुरझा चुके थे। जैसे वो शव को धो रही थी। जैसे जीवन के चले जाने पर किसी का कोई ज़ोर नहीं चलता। वैसे ही सपनों और इच्छाओं के मर जाने पर कोई क्या कर सकता है? उसने बेबसी के खून को साफ किया, लाचारगी के जख्मों को धोया और अपने अनाथ होने की कपड़ों में लगी मुहर को साफ किया”[11]
मनुष्य के आंतरिक मन की निराशा और अवसाद उसे धीरे-धीरे खोखला बना देते हैं। कई बार तो वह अच्छा-बुरा सोचने और समझने की हालत में नहीं रह जाता और जीवन समाप्त कर देने के भाव उसके भीतर पनपने लगते हैं। विकलांग व्यक्ति परिवार और समाज की नफरत और उपेक्षा झेलते कई बार आत्महत्या करने को विवश हो जाता है। समाज की इस विद्रुप सच्चाई को ‘उपहार’ कहानी यथार्थपरक अभिव्यक्ति देती है जहां विजया के मन में आत्महत्या के भाव उसके जीवन शक्ति को कई बार परास्त करते हैं। “मैं क्या करूँ ईश्वर? मुझे तो अब कोई दिल्ली भी न पहुँचाएगा? पैसा मेरे पास नहीं, आँखें तूने दी नहीं। किस दम पर सब का विरोध करूँ? हे ईश्वर! क्या मेरा भविष्य इन्हीं मक्कारों के हाथों में सौंप दिया है? नहीं विजया नहीं, तुम्हें विरोध करना होगा। क्या औकात है मेरी? जिसके दम पर इनका विरोध करूँ? पर मैं मर तो सकती हूँ। एकाएक बिजली के समान यह विचार उसके मस्तिष्क में कौंधा- हाँ-हाँ ठीक है, मैं कल फांसी लगा लूँगी।”[12] इसी तरह ‘कमाई’ कहानी में प्रो मलकानी अपने बेटे और बहू के अमानवीय एवं घृणित व्यवहार से अंदर ही अंदर टूटते बिखरते हुए और अपने जीवन की एक मात्र अवलंब पत्नी को खोकर जीवन के प्रति उदासीन हो उठते हैं। आत्महत्या ही उन्हें अंतिम मार्ग नजर आता है। “प्रो मलकानी को जीवन का अब कोई अर्थ नजर नहीं आता था। असहनीय वेदना ने आत्महत्या को उनकी मंजिल बना दिया था। जैसे कुछ क्षणों के लिए धुँआ आकाश को घेर लेता है वैसे ही विभ्रम ने उनकी आत्मा को घेर लिया था। आजीवन दूसरों को जीवन की श्रेष्ठता का पाठ पढ़ाने वाले कर्मठ प्रोफेसर को आज जीवन सर्वाधिक निकृष्टतम त्याज्य और हेय प्रतीत हो रहा था। यह स्थिति वैसी ही थी जैसे सूर्योदय से पहले अंधकार की होती है।”[13]
भारतीय सामाजिक संरचना में विकलांगों और उनके परिवारजनों के संघर्ष का इतिहास बेहद लंबा और पुराना रहा है। कई बार यह भी देखने को मिलता है कि जानकारी के अभाव एवं सामाजिक दबाव के कारण किसी विकलांग सदस्य की विकलांगता का प्रतिकूल प्रभाव परिवार के अन्य सदस्यों पर भी पड़ता है। दरअसल विकलांगता को समाज में नकारात्मक एवं अभिशप्त स्थिति मानने के कारण उन सदस्यों को आयदिन समाज के अनेकानेक प्रश्नों से रूबरू होना पड़ता है, साथ विकलांगता की कुछ स्थितियाँ परिवार के अन्य सदस्यों के लिए भय और चिंता का कारण भी बन जाती हैं। पानू खोलिया की कहानी ‘अन्ना’ में मिरगी के दौरों से जूझती अन्ना को देख उसके छोटे भाई-बहन के मनोविज्ञान पर बेहद गहरा असर पड़ता है। कहानीकार की कलम लिखती है “वह अस्वभाविक ढंग से खामोश पड़ गई थी। अन्ना को दौरे पड़ते तो दोनों बच्चे अब एकदम आतंकित हो उठते और कहीं दूर से खड़े होकर असमंजस की बड़ी-बड़ी आँखों से खौफ़ खाये देखते रह जाते। अन्ना अब उनके लिए कोई अजूबा जन्तु थी। उससे वे दूर-दूर ही बने रहते, बोलने से डरते”[14] जिस समाज में लड़की पैदा करने पर महिलाओं को अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया जाता हो उसमें विकलांग लड़की पैदा करने वाली माँ तो परिवार के लिए किसी कलंक से कम नहीं मानी जाती है। उलाहनों और तानों की मार उसके मन पर गंभीर प्रभाव डालती है। भीष्म साहनी की कहानी ‘कंठहार’ में सुषमा नामक विकलांग लड़की को पैदा करने का दंश झेलते हुए उसकी माँ मालती स्वयं मानसिक अवसाद की गिरफ्त में चली जाती है। कहानीकार लिखते हैं “आईने के सामने खड़ी-खड़ी मालती सुबक उठी। मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था, जो मुझे यह सज़ा मिल रही है? और लोग हँसते-खेलते हैं। इधर यह घर नरक बना हुआ है और वह फिर सिसकने लगी। बेटी के जन्म के बाद जीवन के पहले सात साल तो आशा और निराशा के बीच झूलते बीत गए थे तब भी मालती कई-कई बार पलंग पर लेटे-लेटे कई रात आँखों में काट देती। तकिया आंसुओं में भीग जाता।”[15]
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि किसी भी व्यक्ति का मनोविज्ञान अपने आसपास के परिवेश से प्रभावित होता है ऐसे में उपरोक्त विवेचन से इस बात के प्रमाण स्पष्ट रूप से मिलते हैं कि सामाजिक अवहेलना एवं उत्पीड़न के परिणाम स्वरूप विकलांगों की मानसिक स्थिति गंभीर रूप से प्रभावित होती है। वे कई बार उग्र एवं हिंसक बन जाते हैं, तो कुछ स्थलों पर आत्मलीन एवं मानसिक अवसाद से ग्रसित दिखाई देते हैं। कभी-कभी मानसिक एवं शारीरिक प्रताड़न इतना क्रूर हो जाता है कि विकलांगजन आत्महत्या के मार्ग पर भी चले जाते हैं। हिंदी के कई कहानिकारों ने विकलांगों के मनोविज्ञान को अपनी संवेदना से रचनात्मक आधार प्रदान करते हुए इस तरफ सोचने को प्रेरित भी किया है कि विकलांगों के प्रति व्याप्त दूषित मानसिकता को समाप्तकर उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जाए और एक स्वतंत्र मनुष्य के रूप में जीने का अधिकार प्रदान किया जाए।
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