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कामेंग अर्धवार्षिक ई-पत्रिका/सहकर्मी समीक्षा जर्नल/जुलाई - दिसंबर,2024/खण्ड-1/अंक-1

शोधालेख
पीटर पॉल एक्का का उपन्यास ‘पलास के फूल’ : आदिवासी समाज में विस्थापन का दस्तावेज

Received: 10 Apr, 2025 | Accepted: 10 Apr, 2025 | Published online: 11 Apr, 2025 | Page No: 1 | URL: 1


पूजा पॉल
शोधार्थी
हिंदी विभाग, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश
शोध-सार

हिन्दी आदिवासी साहित्य में ‘पीटर पॉल एक्का’ का नाम बहुत ही चर्चित माना जाता है । ‘आदिवासी’ यानी देश के ‘मूल निवासी’ को कहा जाता है । दरअसल आदिवासी समाज को ‘हाशिए का समाज’ के खांचे में रखा जाता है । आजादी के बाद आदिवासियों की अवस्था ओर अधिक दयनीय होने लगी । विकास की लहर ने आदिवासियों के जमीन को ही बहाकर ले गया । जमीन सरकार के कब्जे में आते ही आदिवासियों के जीवन में ‘विस्थापन’ नामक समस्या ने आ घेरा । इसी ज्वलंत समस्या को मद्देनजर रखते हुए आदिवासी उपन्यासकार पीटर पॉल एक्का ने बहुत ही प्रभावी ढंग से अपनी लेखनी चलाई है । उपन्यासों के माध्यम से उपन्यासकार ने सरकारी योजनाओं के सफलता के पीछे की सच्चाई, आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय और समाज में फैले भ्रष्टाचार के मुखोटे का पर्दाफाश करने में सफल हुए है । पीटर पॉल एक्का के कुल चार उपन्यास है । उनके द्वारा रचित चारों उपन्यास आदिवासी जीवन पर केन्द्रित है । उनमें से ‘पलास के फुल’ उपन्यास बहुत महत्वपूर्ण और यथार्थ जीवन से सम्बंधित है । इस उपन्यास में ‘विस्थापन’ की त्रासदी को झेलते आदिवासियों का संघर्षमय जीवन चित्रित किया है ।     


बीज शब्द:

आदिवासी, विस्थापन, पीटर पॉल एक्का, देश, उपन्यास, समस्या इत्यादि


मूल विषय:

हमारे देश में आर्यों का आगमन होते ही उन लोगों ने आदिवासियों को उपेक्षित, प्रताड़ित और अधिकारों से वंचित करने लगे । धीरे-धीरे आर्यों ने अपना वर्चस्व फैलाने के लिए आदिवासियों को हाशिए का समाज का दर्जा देने लगे । काल-क्रम अनुसार बाहर से आये लोगों ने आदिवासी समाज को अलग-थलग नजरियों से देखने लगे । गुलामी का जंजीर तोड़ भारत देश को आजाद कराने में आदिवासियों ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाया है । स्वाधीन होने के बाद देश का शासनतंत्र हमारे नेताओं के हाथ में आया तो मूल निवासियों को आश्वासन दिया गया कि उन्हें भी अपना अधिकार जरुर मिलेगा । राजनीतिक सत्ता में खड़े नेताओं का मूल लक्ष्य यहीं था कि सबसे पहले हाशिए के समाज को विकास एवं उन्नतिशील बनाया जाए । उस समय देश-विदेश के चारों तरफ आधुनीकीकरण, औद्योगिकीकरण, भू-मंडलीकरण, बाजारीकरण और उदारीकरण का दौर चल रहा था । हमारा नया स्वाधीन देश ने भी समय के बहाव के साथ चलने में ही उचित समझा । हमारे देश को विकासशील और उन्नतशील बनाने के लिए आदिवासियों की जमीन का इस्तमाल होना शुरू किया गया । आदिवासियों ने देश की भलाई के लिए अपना सर्वस्व लुटाने लगे, लेकिन बदले में राजनीतिक सत्ताधारियों ने आदिवासियों को अपना हक नहीं दिया । जिस कारण आदिवासियों को विस्थापन का दर्द झेलना पर रहा है । इसी सन्दर्भ में डॉ. संजय कुमार लक्की का कहना है कि “आजाद भारत के साठ साल कई उम्मीदों के टूटने और कई प्रतीक्षाओं के निष्फल होने के साल हैं । इन्हीं वर्षों में सत्ता और शक्ति के केन्द्रों से जुड़ा एक छोटा – सा समूह इस बड़ी आबादी की सारी जरूरतों को रौंदते हुए और उसे हर स्तर पर विस्थापित करते हुए, अपने लिए एक हरा-भरा मरुद्दान बनाने के छल में सफल हुआ है” [1] हमारा देश जितना ही विकास के सीढ़ी में चढ़ता जा रहा, आदिवासी समाज में ‘विस्थापन’ की समस्या बढ़ने लगी है । विस्थापन की समस्या ने आदिवासियों के जीवन को और भी अधिक कठीन और संघर्षमय बना दिया है ।



पीटर पॉल एक्का द्वारा रचित ‘पलास के फुल’ उपन्यास में आदिवासियों के आन्तरिक और बाह्य जीवन को प्रतिफलित किया गया है । यह उपन्यास  विस्थापन समस्या पर केन्द्रित है । उपन्यासकार ने आदिवासियों के जीवन में विस्थापन नामक समस्या के सभी पहलुओं को रेखांकित किया है । विस्थापन का दंश झेलते आदिवासियों की दुःख और त्रासदीपूर्ण जीवन का पीड़ादायक वर्णन किया गया । ‘गंगा सहाय मीणा’ का कहना है कि “तमाम विकास परियोजनाओं से आदिवासियों को भूख और विस्थापन के अलावा कुछ नहीं मिला” [2] इसी कटु सत्य का परिपुष्टि करती है पीटर पॉल एक्का की ‘पलास के फुल’ उपन्यास ।  आदिवासी विस्थापित होते ही रोजगार की समस्या उभर कर आती हैं । भूख की आग में आदिवासियों का जीवन सुलझ जाता है । गाँव भर में उथल-पुथल तभी शुरू हो गयी जब सरकार ने सड़क-पुल बनाने की परियोजना लागू की । आदिवासियों का जीवन-प्रणाली में बहुत अधिक बदलाव की परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है । परियोजनाओं का काम शुरू होते ही प्राकृतिक संपदाएं क्षतिग्रस्त होती है । सड़क बनाने के लिए बहुत अधिक पेड़ काटना परता है । सरकार अब मालिक बनकर जंगलों के जंगल काट डालते है । जंगल का असली संरक्षक आदिवासियों का वनस्पति पर रहे अधिकार को सरकार छींन लेते है । जंगल से जीविकापार्जन का साधन जुटानेवाले आदिवासियों का रोजगार बंध हो जाता है । साथ ही खेत-खलिहान का जमीन भी सड़क बनाने के काम में सरकार कब्जा कर लेते है । खेती-बारी कर रोजीरोटी कमानेवाला साधन भी आदिवासियों के पास नहीं रहता । अब ले-देकर आदिवासियों के पास सड़क बनाने के काम में मजदूरी करना ही विकल्प रह जाता है । इस कार्य में भी उन पर शोषण किया जाता है । मशीनी गति से काम निकलवाना और मजदूरी में रुपया कम देना तो स्वाभाविक हो गया है । अपना पेट पालने के लिए आदिवासी मजदूरी कर जीवन-यापन करते है ।



“सरकारी योजनाएँ तो ज्यादेतर कागजों में ही सिमट कर रह जाती हैं । दिखावे के खर्च होते रहेंगे । इन आदिवासियों का भाग्य वहीं का वहीं रह जायेगा । बेहिसाब खदान, कोलियरी खुलेगी । नदियों में पुल बनेंगे, बाँध बनेंगे । बिजली तैयार होगी, नहरें खुलेंगी । वर्षों की मेहनत से बनी-बनायी जमीन डूब जायेगी । मुआवजे के नाम दिखावे की रकम मिलेगी । घर-बार छोड़ना होगा । घर के आदमी विस्थापित कर दिये जायेंगे । दूर के इलाके से आये लोगों का राज्य चलेगा । स्थानीय आदिवासी चाय बगानों, ईंट-भट्टों की राह लेंगे” [3] सरकार आदिवासियों को जमीन के बदले जो मुआवजा देते है, वह बहुत ही नगण्य है । वह पैसा कब, कैसे और कहाँ खर्च हो जाता है आदिवासियों को पता भी नहीं चलता । अचानक से आदिवासियों का जीवन मालिक से गुलाम की जिन्दगी में परिवर्तित हो जाता है । दरअसल सरकार आदिवासियों से जमीन छींनकर एक तरह से ताउम्र पंगु बना देते है । सरकार ने आदिवासियों से जमीन लेकर उनकी दुनिया ही उजाड़कर रख देता है । अधिकत्तर योजनाओं में जमीन दे देने के बाद मिलनेवाली मुआवजा भी आदिवासियों को नसीब नहीं होता । सरकारी कागजात में लिखा होता है कि आदिवासियों को अपना जमीन देने के बदले मुआवजा मिल चुका है, लेकिन असली धरातल में आकर देखा जाए तो जमीन के बदले एक फूटी-कोड़ी भी नहीं मिलती । उपन्यासकार ने सरकारी कार्यकलाप में चल रहे धोकाधरी और भ्रष्टाचार, आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय पर पाठकों का ध्यान केन्द्रीत किया है । इस प्रकार सरकारी योजनाएं आदिवासी गाँव को तहस-नहस कर देता है । बेघर होकर आदिवासी भटकाव की जिन्दगी गुजारते है ।



सरकार के झुटी आश्वासन पर विश्वास कर गाववासी ठगा हुआ महसूस करते है । दरअसल इस योजना को पुरी करने के लिए आदिवासियों को अपना जमीन दे देना परता है । प्रकृति पूजक आदिवासियों का जमीन से जुड़ा हुआ रिश्ता टूट जाता है । जिस जमीन के जरिए आदिवासी अपने पूर्वजों से भावनात्मक स्तर से जुड़े हुए सम्बन्ध भी लुप्तप्राय होने लगती है । इस सन्दर्भ में ‘प्रमोद मीणा’ कहते है कि “सवाल सिर्फ जमीन का नहीं है । इस जमीन के साथ आदिवासी समाज की अर्थव्यवस्था, समाज-व्यवस्था, धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएँ और पूर्वजों की यादें जुड़ी हैं”[4] जमीन से जुड़े रहने का मतलब होता है कि अपने जड़ से जुड़े रहना, परन्तु सरकारी योजनाएं आदिवासियों के जड़ (जमीन) से ही काट फेंकता है । आदिवासी एक जगह से दूसरें जगह में विस्थापित होते ही अपनी जो परम्परागत विशेषताएँ धुमील पर जाती है । अपना सांस्कृतिक उत्सवों को पालन करने के लिए पहले जैसा परिवेश और संगी-साथी का भी अभाव महसूस करता है । विस्थापित हुए आदिवासी अपने परिवार, नाते-रिश्तों और अपना आदिवासी समाज से बिछड़ जाते है । विस्थापित हुए आदिवासी कभी-कभी अपना आदिवासी धर्म को भी भूल जाते है और अन्य धर्म में परिवर्तित हो जाते है । सरकारी योजनाएं आदिवासियों को सम्पूर्ण रूप से प्रभावित करती है । इन योजनाओं का नकरात्मक प्रभाव का शिकार आदिवासी समुदाय ही होते हुए देखा जाता है । ‘पलास के फुल’ उपन्यास में स्पष्ट रूप में चित्रित किया गया है ।



               विस्थापन के कारण जन्मे अन्य समस्याओं पर भी दृष्टि डाली गयी है । उनमें से प्रमुख है बेरोजगारी की समस्या । इस समस्या के सन्दर्भ में ‘आनंद कुमार पटेल’ कहते है कि “विस्थापन के साथ ही आदिवासियों के जीविकोपार्जन की समस्या शुरू हो जाती है, जिससे आदिवासी समाज स्थाई रूप में न रहकर घुमंतू जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाता है । एक्का के उपन्यास, आदिवासी समाज की समस्या, दुःख-पीड़ा की आक्रोशपूर्ण अभिव्यक्ति हैं” [5] आदिवासियों के रोजगार का प्रमुख साधन खेत और जंगल होता है । आदिवासी बहुत परिश्रम कर फसल उगाते है और उसी से अपना जीविका चलाते है । साथ ही जंगल से फल-मूल, सब्जी, जड़ीबुटी, लकड़ी इत्यादि बटोरकर बजार में बेचकर आदिवासी अपना जीविका चलाते है । यह दोनों ही साधन सरकार ने बंध करवा दिया । बेरोजगारी की समस्या के साथ-साथ आदिवासियों का जीवन आर्थिक तंगी ने ओर भी अधिक दयनीय बना दिया । आर्थिक कमजोरी ने आदिवासियों को हाथ फैलाने के लिए मजबूर कर दिया । मजबूरी में आकर आदिवासी ऋण ग्रस्त जीवन जीवन जीता है । ऋण से दबकर रहनेवाले आदिवासियों का शोषण जमींदार किया करते है । कर्ज चुकाने के लिए आदिवासियों के पास बचा हुआ सबकुछ जमींदार को सौंप देते है । असल में ऋण के नाम पर आदिवासियों को ठगा जाता है । आदिवासियों का जीवन बहुत कठिनाई और त्रासदी से गुजरती है ।



विस्थापन के कारण आदिवासियों के जमीन पर वर्षों से चले आ रहे आदिवासियों की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक गतिविधियाँ बिछीन्न हो जाती है । जमीन से हाथ धोते ही आदिवासियों के जीवन-प्रणाली का साधन नहीं रहा । अपना प्राणस्वरूप जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों का अधिकार सरकार ने छीन लिया । अब मजदूरी करने के अलावा कोई रोजगार का साधन नहीं बचा । इसलिए सलोमी कहती है कि “आज हम यहाँ हैं, कल कहीं और होंगे । जंगल के जंगल, पहाड़-घाटियाँ जाने कहाँ-कहाँ भटकना होता है । सब तो भटकते ही जा रहे हैं । यहाँ से हजारों मील दूर चाय के बगानों, ईंट-भट्टों का स्वप्न कौन देखता है वहाँ भी दबाये जायेंगे, निचोड़े जायेंगे । पर शायद दो जून की रोटी जुट जायेगीीन । यही हमारा धर्म हो गया है, भाग्य बन गया है” [6] भूख की आग को मिटाने के लिए आदिवासियों को इधर-उधर भटकते हुए जीवन व्यतीत करना परता है । अपने गाँव में रोजगार का साधन न मिलने के कारण दूसरें गाँव में रोजगार की तलाश में जाते है । फिर कुछ दिन वहां मजदूरी का काम कर पेट भर लेते है । दूसरी जगह पर भी जब बेरोजगारी का अकाल परता है तो तीसरी जगह विस्थापित हो जाते है । आदिवासियों का जीवन अंतहीन भटकाव का दौर निरंतर चलते रहते है । आदिवासी चाहे जहां पर चला जाए हर जगह उन पर शोषण-प्रताड़ित और अजनबी का जीवन जीना परता है । यह निरंतर चलते संघर्षमय जीवन से थक हार कर अपने भाग्य पर ही दोष देकर मौन में जीवन जीते है । उपन्यास के अंत में देखते है कि सरकारी योजना के तहत सड़क-पूल बनकर तैयार हो चूका है । उसी सड़क और पूल से आदिवासी बेरोजगारी के अकाल से बचने के लिए विस्थापन का रास्ता ही चुन लेते है । आदिवासी बनाम विस्थापन की त्रासदी को उपन्यासकार ने बहुत ही यथार्थ रूप में रेखांकित किया है ।   



उपन्यास में स्पष्ट रूप में आदिवासियों पर चल रहे घिनौने षड़यंत्र का पर्दाफाश किया गया है । उपन्यासकार ने कटाक्ष रूप में, आदिवासियों के जीवन को अँधेरे के तरफ धकेल देने में राजनीतिक शासन पर बैठे सरकार को जिम्मेदार ठहराया है । इंजीनियर साहब आदिवासियों की दुर्दशा देख सोचता है कि “यह सब क्या उन भोले-भाले आदिवासियों के भले के लिए हो रहा है या एक अंतहीन भटकाव की शुरुआत है” [7] आदिवासियों का सरकार से जो उम्मीदें थी, वह सब कुछ खतम हो गया । आदिवासी पर शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण बढ़ता ही जा रहा है । सरकार ने आदिवासियों से अपना जल, जंगल और जमीन से अधिकार छींन लिया । इसके साथ ही आदिवासी समाज, संस्कृति, अस्मिता और अस्तित्व की पहचान भी गायब होने के कगार पर पहुँच चुका है । सरकार अगर आवश्यकता अनुसार विकास और आदिवासी जीवन के बीच संतुलन स्थापित कर पाते तो मूल निवासियों का जीवन तबाह होने से बच सकता है । सरकार प्रयोजनीयता के हिसाव से ही विकास करने का कार्य अपना लेते तो सब का साथ सब का विकास संभव हो पाएगा ।   


निष्कर्ष:

‘पलास के फूल’ उपन्यास आदिवासी समाज के विस्थापन की त्रासदी को बहुत ही विस्तृत एवं प्रभावी ढंग से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने में सफल मान सकते है । असल में सरकारी योजनाएं आदिवासियों के जमीन पर ही पूर्णता प्राप्त करती है । गाँव में उपलब्ध होनेवाले सुविधाओं का लाभ आदिवासी नहीं उठा पाते । विकास का श्री गणेश तो गाँव में बढ़ियाँ से किया जाता है, लेकिन ‘विस्थापन’ की समस्या बढ़ने लगती है । जमीन से बेदखल होते ही अधिकत्तर आदिवासी विस्थापित हो जाते है । गाँव में रह गये आदिवासी सरकारी योजना में मजदूरी का काम कर अपना परिवार का पालन-पोषण कर लेते है । जब आदिवासी गाँव में सरकारी योजनाओं का सफलतापूर्वक काम हो जाता है तो तब गाँव में फिर से बेरोजगारी का अकाल परता है । गाँव में बाकी बचे मजदुर आदिवासी दूसरी जगह काम के तलाश में विस्थापित हो जाते है । अंत में गाँव पूरा का पूरा खाली परा रहता है । गाववालों की यातायात के सुविधा के लिए बनाये गये सड़क-पुल बाहर से आये लोगों के लिए काम आते है । सरकारी कागजत में आदिवासियों के भलाई के लिए बनाया गया सड़क-पुल नाम से दर्ज किया रहेगा, लेकिन असल में यथार्थ के धरातल पर आकर देखा जाए तो सुविधा का भोग उठाते अन्य लोगों की जमघट दिखाई देंगी । सरकारी योजनाओं का खोखले और दिखावा के कार्य का खुलासा उपन्यासकार अपने उपन्यास के माध्यम से करते है । ‘पलास के फुल’ उपन्यास अपनी इस मौलिकता के कारण पाठकों में खूब चर्चित है । आदिवासी अपना जमीन और परिश्रम देकर के सड़क-पूल बनाएगा, परन्तु इसके बाद उपभोग न  कर पाने की विडम्बना भी बहुत दुखद है । विस्थापन की समस्या पर केन्द्रित यह पीटर पॉल एक्का की उपन्यास बहुत ही प्रासंगिक साबित होती है ।             


सहायक ग्रन्थ सूची

1.डॉ. रमेश चंद मीणा, आदिवासी विमर्श, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी प्रकाशन, जयपुर, 2013, पृष्ठ संख्या 42



2.गंगा सहाय मीणा, आदिवासी चिंतन की भूमिका, अनन्य प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019, पृष्ठ संख्या 26



3.पीटर पॉल एक्का, पलास के फूल उपन्यास, सत्य भारती प्रकाशन, रांची, 2012, पृष्ठ संख्या 58



4.अनुज लुगुन, आदिवासी अस्मिता प्रभुत्व और प्रतिरोध, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृष्ठ संख्या 51



5.आनंद कुमार पटेल, आदिवासी संवेदना और पीटर पॉल एक्का के उपन्यास, सत्य भारती प्रकाशन, रांची, 2020, पृष्ठ संख्या 117



6. पीटर पॉल एक्का, पलास के फूल उपन्यास, सत्य भारती प्रकाशन, रांची, 2012, पृष्ठ संख्या 58



7.पीटर पॉल एक्का, पलास के फूल उपन्यास, सत्य भारती प्रकाशन, रांची, 2012, पृष्ठ संख्या 20


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Puja Paul

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